संग्राम में साहित्य
घोर संकट में पड़ने पर ही आदमी की ऊँची से ऊँची, कठोर से कठोर और पवित्र से पवित्र मनोवृत्तियों का विकास होता है। साधारण दशा में मनुष्य का जीवन भी साधारण होता है। वह भोजन करता है, सोता है, हँसता है, विनोद का आनन्द उठाता है। असाधारण दशा में उसका जीवन भी असाधारण हो जाता है और परिस्थितियों पर विजय पाने, या विरोधी कारणों से अपनी आत्म-रक्षा करने के लिये उसे अपने छिपे हुए मनोऽस्त्रों को बाहर निकालना पड़ता है। आत्म-त्याग और बलिदान के, धैर्य और साहस के, उदारता और विशालता के जौहर उसी वक्त खुलते है, जब हम बाधाओं से घिर जाते हैं। जब देश में कोई विप्लव या संग्राम होता है, तो जहाँ वह चारों तरफ हाहाकार मचा देता है, वहाँ हममे देव-दुर्लभ गुणों का संस्कार भी कर देता है। और साहित्य क्या है? हमारी अन्तर्तम मनोवृत्तियों के विकास का इतिहास। इसलिये यह कहना अनुचित नहीं है, कि साहित्य का विकास संग्राम ही में होता है। संसार-साहित्य के उज्ज्वल से उज्ज्वल रत्नों को ले लो, उनकी सृष्टि या तो किसी संग्रामकाल में हुई है, या किसी संग्राम से सम्बन्ध रखती है।
रूस और जापान के युद्ध में आत्म-बलिदान के जैसे उदाहरण मिलते है, वह और कहाँ मिलेंगे? यूरोपियन युद्ध में भी साधारण मनुष्यों ने ऐसे-ऐसे विलक्षण काम कर दिखाए, जिन पर हम आज दाँतों उँगली दबाते हैं। हमारा स्वाधीनता-संग्राम भी ऐसे उदाहरणों से ख़ाली नहीं
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