हमें उससे कोई मतलब नहीं, अपने पड़ा रहे। ईश्वर को जिस तरह पौधों और खटमलों के मरने जीने से कोई मतलब नहीं, उसी तरह मनुष्य रूपी कीटों से भी उसे कोई प्रयोजन नहीं। आपस मे कटो-मरो, समष्टि की उपासना करो चाहे व्यष्टि की, गऊ की पूजा करो या गऊ की हत्या करो, ईश्वर को इससे कोई प्रयोजन नहीं। मनुष्य की
भलाई या बुराई की परख उसकी सामाजिक या असामाजिक कृतियों में है। जिस काम से मनुष्य समाज को क्षति पहुँचती है, वह पाप है। जिससे उसका उपकार होता है, वह पुण्य है। सामाजिक उपकार या अपकार से परे हमारे किसी कार्य का कोई महत्व नहीं है और मानव जीवन का इतिहास आदि से इसी सामाजिक उपकार को मर्यादा बाँधता
चला आया है। भिन्न भिन्न समाजों और श्रेणियों में यह मर्यादा भी भिन्न है। एक समाज पराई चीज की तरफ आँख उठाना भी बुरा समझता है, दूसरा समाज कोई चीज दाम देकर ख़रीदना पाप ख्याल करता है। एक समाज खटमल के पीछे मनुष्य को कत्ल करने पर तैयार है, दूसरा समाज पशुओं के शिकार को मनोरंजन की वस्तु समझता है। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे और आज भी संसार के बाज़े हिस्सों में धर्म केवल गुटबन्दी का नाम है जिससे मनुष्यों का एक
समूह लोक और परलोक की सारी अच्छी चीजें अपने ही लिए रिजर्व कर लेता है और किसी दूसरे समूह का उसमें उस वक्त तक हिस्सा नहीं देता जब तक वह अपना दल छोड़कर उसके दल मे ना मिले। धर्म के पीछे क्या क्या अत्याचार हुए हैं, कौन नहीं जानता। आजकल धर्म का वह महत्त्व नहीं है। वह पद अब व्यापार को मिल गया है। और इस व्यापार के लिए आज राष्ट्रों और जातियों में कैसा संघर्ष हो रहा है, वह हम देख ही रहे हैं। ईश्वर को इन सारे टंटो से कोई मतलब नहीं है। चाहे कोई राम को बीसों कला का अवतार माने या गान्धी को, ईश्वर को परवाह नहीं। उपासना और भक्ति यह सब अपनी मनोवृत्तियों की चीजें हैं, ईश्वर को हमारी भक्ति और उपासना से कोई मतलब नहीं। हम व्रत
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जड़वाद और आत्मवाद