इतनी ही जरूरत है कि भावुकता बेलगाम होकर दौड़ने न पाये। वैराग्यवाद और दुःखवाद और निराशावाद, ये सब जीवन-बल को कम करने वाली चीजें है और साहित्य पर इनका आधिपत्य हो जाना जीवन को दर्बल कर देगा। लेकिन उसी तरह बुद्धिवाद और तर्कवाद और उपयोगितावाद भी जीवन को दुर्बल कर देगा, अगर उसे बेलगाम दौडने दिया गया। बिजली की हमे इतनी ही जरूरत है कि मशीन चलती रहे: अगर करेट ज्यादा तेज हो गया तो घातक हो जायेगा। दाल मे घी जरूरी चीज़ है । एक चम्मच और पड जाय तो और भी अच्छा, लेकिन घी पीकर तो हम नहीं रह सकते । मथुरा मे कुछ ऐसे जन्तु पाये जाते है जो घी के लोंदे खा जाते है, लेकिन उसमे भी वे खूब शक्कर मिला लेते है वरना उनकी भस्मक जठराग्नि भी जवाब दे जाय । बुद्धिवाद का प्राचार्य बर्नार्ड शा भी तो अपने नाटकों मे हास्य और व्यग्य और चुटकियो की चाशनी मिलाता है । वह जबान से चाहे कितना ही बुद्धि- वाद की हाक लगाये; मगर भावुकता उसके पोर पोर मे भरी हुई है। वर्ना वह क्यो रोल्स राइस कार पर सवार होता ? क्या मामूली बेबी आस्टिन से उसका काम नहीं चल सकता था ? उसके बुद्धिवाद पर मिसेज शा की भावुकता का नियन्त्रण न होता तो शायद आज वह पागलखाने की हवा खाता होता । मनुष्य मे न केवल बुद्धि है, न केवल भावुकता। वह इन दोनो का सम्मिश्रण है, इसलिए आपके साहित्य मे भी इन दोनो का सम्मिश्रण होना चाहिए । बुद्धिवाद तो कहेगा कि रस एक व्यर्थ की चीज है। प्रेम और वियोग, क्रोध और मोह, दया और शील यह सब उसकी नजर मे हेय है। वह तो केवल न्याय और विचार को ही जीवन का सर्वस्व समझता है । उसका मन्त्र लेकर हमारी मानवता इतनी क्षीण हो जायेगी कि हवा से उड जाय । एक उदाहरण लीजिए ।
एक मुसाफिर को डाकुओं ने घेर लिया है । अगर संसार में समष्टिवाद का राज हो गया है, तो निश्चय रूप से डाकू न होंगे।