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सहित्य का उद्देश्य

योग्य नही समझता । जहाँ उसने समाज के प्रश्नों को उठाया है, वहाँ शैली शिथिल हो गयी है।

"जिस उपन्यास को समाप्त करने के बाद पाठक अपने अन्दर उत्कर्ष का अनुभव करे, उसके सद्भाव जाग उठे, वही सफल उपन्यास है। जिसके भाव गहरे हैं, प्रखर है-जो जीवन मे लद् बनकर नहीं, बल्कि सवार बनकर चलता है, जो उद्योग करता है और विफल होता है, उठने की कोशिश करता है और गिरता है, जो वास्तविक जीवन की गहराइयो मे डूबा है, जिसने जिन्दगी के ऊँच नीच देखे है, सम्पत्ति और विपत्ति का सामना किया है, जिसकी जिन्दगी मखमली गद्दो पर ही नहीं गुजरती, वही लेखक ऐसे उपन्यास रच सकता है जिनमे प्रकाश, जीवन और अानन्द-प्रदान की सामर्थ्य होगी।'

उपन्यास के पाठको की रुचि भी अब बदलती जा रही है। अब उन्हे केवल लेखक की कल्पनाओ से सन्तोष नहीं होता । कल्पना कुछ भी हो, कल्पना ही है । वह यथार्थ का स्थान नही ले सकती । भविष्य उन्ही उपन्यासो का है, जो अनुभूति पर खड़े हो ।

इसका अाशय यह है कि भविष्य मे उपन्यास मे कल्पना कम, सत्य अधिक होगा। हमारे चरित्र कल्पित न होगे, बल्कि व्यक्तियो के जीवन पर आधारित होगे । किसी हद तक तो अब भी ऐसा होता है; पर बहुधा हम परिस्थितियो का ऐसा क्रम बाँधते है कि अन्त स्वाभाविक होने पर भी वह होता है जो हम चाहते हैं। हम स्वाभाविकता का स्वॉग जितनी खूबसूरती से भर सकें, उतने ही सफल होते हैं, लेकिन भविष्य मे पाठक इस स्वॉग से सन्तुष्ट न होगा।

यो कहना चाहिए कि भावी उपन्यास जीवन-चरित्र होगा, चाहे किसी बड़े आदमी का या छोटे आदमी का । उसकी छुटाई बड़ाई का फैसला उन कठिनाइयो से किया जायगा कि जिन पर उसने विजय पायी है । हाॅ, वह चरित्र इस ढंग से लिखा जायगा कि उपन्यास मालूम हो ।