पशु-वृत्तियाँ इतनी प्रबल होती जा रही हैं कि अब उसके हृदय मे कोमल भावो के लिए स्थान ही नहीं रहा ।
उपन्यास के चरित्रो का चित्रण जितना ही स्पष्ट, गहरा और विकासपूर्ण होगा उतना ही पढ़नेवालो पर उसका असर पडेगा, और यह लेखक की रचना-शक्ति पर निर्भर है। जिस तरह किसी मनुष्य को देखते ही हम उसके मनोभावो से परिचित नही हो जाते, ज्यो-ज्यो हमारी घनिष्ठता उससे बढ़ती है, त्यो-त्यों उसके मनोरहस्य खुलते है, उसी तरह उपन्यास के चरित्र भी लेखक की कल्पना मे पूर्ण रूप से नहीं पा जाते बल्कि उनमे क्रमशः विकास होता जाता है। यह विकास इतने गुप्त, अस्पष्ट रूप से होता है कि पढ़नेवाले को किसी तबदीली का ज्ञान भी नहीं होता । अगर चरित्रो मे किसी का विकास रुक जाय तो उसे उपन्यास से निकाल देना चाहिए, क्योकि उपन्यास चरित्रो के विकास का ही विषय है। अगर उसमे विकास-दोष है, तो वह उपन्यास कमजोर हो जायगा। कोई चरित्र अन्त मे भी वैसा ही रहे जैसा वह पहले था-उसके बल- बुद्धि और भावों का विकास न हो, तो वह असफल चरित्र है।
इस दृष्टि से जब हम हिन्दी के वर्तमान उपन्यासों को देखते है तो निराशा होती है । अधिकाश चरित्र ऐसे ही मिलेंगे जो काम तो बहुतेरे करते है, लेकिन जैसे जो काम वे आदि मे करते, उसी तरह वही अन्त मे भी करते हैं।
कोई उपन्यास शुरू करने के लिए यदि हम उन चरित्रो का एक मानसिक चित्र बना लिया करे तो फिर उनका विकास दिखाने मे हमे सरलता होगी। यह कहने की भी जरूरत नही है, विकास परिस्थिति के अनुसार स्वाभाविक हो, अर्थात्-पाठक और लेखक दोनो इस विषय मे सहमत हों । अगर पाठक का यह भाव हो कि इस दशा मे ऐसा नहीं होना चाहिए था तो इसका यह अाशय हो सकता है कि लेखक अपने चरित्र के अङ्कित करने में असफल रहा । चरित्रों मे कुछ न कुछ विशेषता भी रहनी चाहिए। जिस तरह संसार मे कोई दो व्यक्ति समान नहीं होते,