है, उसके लिए कुछ छोड जाने के लिए आप नाना प्रकार के कष्ट
झेलता है, लेकिन धर्म-भीरुता के कारण अनुचित रीति से धन-सचय
नहीं करता है । उसे शका होती है कि कही इसका परिणाम हमारी सन्तान
के लिए बुरा न हो । कोई ऐसा होता है कि औचित्य का लेश-मात्र भी
विचार नहीं करता—जिस तरह भी हो कुछ धन-संचय कर जाना अपना
ध्येय समझता है, चाहे इसके लिए उसे दूसरो का गला ही क्यो न
काटना पडे । वह सन्तान-प्रेम पर अपनी आत्मा को भी बलिदान
कर देता है। एक तीसरा सन्तान-प्रेम वह है, जहाँ सन्तान का चरित्र
प्रधान कारण होता है, जब कि पिता सन्तान का कुचरित्र देखकर उससे
उदासीन हो जाता है उसके लिए कुछ छोड़ जाना व्यर्थ समझता है ।
अगर आप विचार करेगे तो इसी सन्तान-प्रेम के अगणित भेद आपको
मिलेगे। इसी भो ति अन्य मानव-गुणों की भी मात्राएँ और भेद है। हमारा
चरित्राध्ययन जितना ही सूक्ष्म, जितना ही विस्तृत होगा, उतनी ही
सफलता से हम चरित्रो का चित्रण कर सकेगे । सन्तान-प्रेम की एक
दशा यह भी है, जब पुत्र को कुमार्ग पर चलते देखकर पिता उसका
घातक शत्रु हो जाता है । वह भी सन्तान-प्रेम ही है, जब पिता के लिए
पुत्र घी का लड्डू होता है जिसका टेढापन उसके स्वाद मे बाधक नहीं
होता। वह सन्तान-प्रेम भी देखने मे आता है जहाँ शराबी, जुआरी
पिता पुत्र-प्रेम के वशीभूत होकर ये सारी बुरी आदते छोड़ देता है।
अब यहाँ प्रश्न होता है, उपन्यासकार को इन चरित्रो का अव्ययन करके उनको पाठक के सामने रख देना चाहिए, उसमे अपनी तरफ से काट छॉट कमी बेशी कुछ न करनी चाहिये, या किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए चरित्रो मे कुछ परिवर्तन भी कर देना चाहिए ?
यहीं से उपन्यासो के दो गिरोह हो गये है। एक आदर्शवादी, दूसरा यथार्थवादी।
यथार्थवादी चरित्रो को पाठक के सामने उनके यथार्थ नग्न रूप मे
रख देता है । उसे इससे कुछ मतलब नहीं कि सच्चरित्रता का परिणाम