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कहानी-कला

से बहुत निकट आ गई है। उसकी जमीन अब उतनी लम्बी- चौड़ी नही है। उसमे कई रसो, कई चरित्रो और कई घटनाओ के लिए स्थान नहीं रहा । वह अब केवल एक प्रसग का, अात्मा की एक झलक का सजीव हृदय-स्पर्शी चित्रण है । इस एकतथ्यता ने उसमे प्रभाव, अाकस्मिकता और तीव्रता भर दी है। अब उसमे व्याख्या का अश कम, सवेदना का अंश अधिक हता है । उसकी शैली भी अब प्रभावमयी हो गई है। लेखक को जो कुछ कहना है, वह कम से कम शब्दो मे कह डालना चाहता है । वह अपने चरित्रों के मनोभावो की व्याख्या करने नहीं बैठता, केवल उसकी तरफ इशारा कर देता है । कभी-कभी तो सम्भाषणों मे एक दो शब्दों से ही काम निकाल देता है । ऐसे कितने ही अवसर होते है, जब पात्र के मुंह से एक शब्द सुनकर हम उसके मनोभावों का पूरा अनुमान कर लेते हैं, पूरे वाक्य की जरूरत ही नहीं रहती । अब हम कहानी का मूल्य उसके घटना-विन्यास से नही लगाते, हम चाहते हैं कि पात्रों की मनोगति स्वयं घटनाओ की सृष्टि करे। घटनाओ का स्वतन्त्र कोई महत्व ही नही रहा । उनका महत्व केवल पात्रो के मनोभावो को व्यक्त करने की दृष्टि से ही है- उसी तरह, जैसे शालिग्राम स्वतन्त्र रूप से केवल पत्थर का एक गोल टुकड़ा है, लेकिन उपासक की श्रद्धा से प्रतिष्ठित होकर देवता बन जाता है । खुलासा यह कि कहानी का आधार अब घटना नही, अनु- भूति है। आज लेखक केवल कोई रोचक दृश्य देखकर कहानी लिखने नहीं बैठ जाता । उसका उद्देश्य स्थूल सौन्दर्य नही है। वह तो कोई ऐसी प्रेरणा चाहता है, जिसमे सौन्दर्य की झलक हो, और इसके द्वारा वह पाठक की सुन्दर भावनाओं को स्पर्श कर सके।


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