जब उसमे भोग और अधिकार का मोह नही रहता। किसी राष्ट्र की
सबसे मूल्यवान् सम्पत्ति उसके साहित्यिक आदर्श होते हैं। व्यास और
चाल्मीकि ने जिन आदर्शों की सृष्टि की, वह आज भी भारत का सिर
ऊँचा किये हुए हैं। राम अगर वाल्मीकि के साँचे मे न ढलते, तो राम
न रहते । सीता भी उसी सॉचे मे ढलकर सीता हुई। यह सत्य है कि
हम सब ऐसे चरित्रो का निर्माण नही कर सकते; पर एक धन्वन्तरि
के होने पर भी संसार मे वैद्यो की आवश्यकता रही है और
रहेगी।
ऐसा महान् दायित्व जिस वस्तु पर है, उसके निर्माताओं का पद
कुछ कम जिम्मेदारी का नहीं है । कलम हाथ मे लेते ही हमारे सिर
बड़ी भारी जिम्मेदारी आ जाती है । साधारणतः युवावस्था मे हमारी
निगाह पहले विध्वंस करने की अोर उठ जाती है। हम सुधार करने की
धुन मे अंधाधुंध शर चलाना शुरू करते है । खुदाई फौजदार बन जाते
है । तुरन्त अॉखे काले धब्बो की अोर पहुँच जाती है। यथार्थवाद के
प्रवाह मे बहने लगते हैं। बुराइयों के नग्न चित्र खींचने मे कला की
कृतकार्यता समझते है । यह सत्य है कि कोई मकान गिराकर ही उसकी
जगह नया मकान बनाया जाता है। पुराने ढकोसलों और बन्धनो को
तोड़ने की जरूरत है; पर इसे साहित्य नही कह सकते । साहित्य
तो वही है, जो साहित्य की मर्यादात्रों का पालन करे । हम अक्सर
साहित्य का मर्म समझे बिना ही लिखना शुरू कर देते है । शायद
हम समझते है कि मजेदार, चटपटी और ओजपूर्ण भाषा
लिखना ही साहित्य है। भाषा भी साहित्य का एक अंग है; पर
साहित्य विश्वस नहीं करता, निर्माण करता है। वह मानव-चरित्र की
कालिमाएँ नहीं दिखाता, उसकी उज्ज्वलताएँ दिखाता है । मकान
गिरानेवाला इन्जीनियर नही कहलाता । इन्जीनियर तो निर्माण ही
करता है। हममे जो युवक साहित्य को अपने जीवन का ध्येय बनाना
चाहते है, उन्हें बहुत अात्म संयम की आवश्यकता है, क्योकि वह अपने