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जीवन में सहित्य का स्थान

होकर वह अपना देवत्व खो बैठता है । साहित्य इसी देवत्व को अपने स्थान पर प्रतिष्ठित करने की चेष्टा करता है-उपदेशो से नहीं, नसी- हतो से नहीं, भावो को स्पन्दित करके, मन के कोमल तारो पर चोट लगाकर, प्रकृति से सामजस्य उत्पन्न करके। हमारी सभ्यता साहित्य पर ही अाधारित है । हम जो कुछ है, साहित्य के ही बनाये है। विश्व की आत्मा के अन्तर्गत भी राष्ट्र या देश की एक श्रात्मा होती है । इसी श्रात्मा की प्रतिध्वनि है-साहित्य । योरप का साहित्य उठा लीजिए। श्राप वहाँ सघर्ष पायेगे । कही खूनी काडो का प्रदर्शन है, कही जाससी कमाल का । जैसे सारी संस्कृति उन्मत्त होकर मरु मे जल खोज रही है । उस साहित्य का परिणाम यही है कि वैयक्तिक स्वार्थ-परायणता दिन दिन बढती जाती है, अर्थ-लोलुपता की कही सीमा नहीं, नित्य दगे, नित्य लडाइयाँ । प्रत्येक वस्तु स्वार्थ के कॉटे पर तौली जा रही है । यहाँ तक कि अब किसी युरोपियन महात्मा का उपदेश सुनकर भी सन्देह होता है कि इसके परदे मे स्वार्थ न हो । साहित्य सामाजिक श्रादों का स्रष्टा है । जब अादर्श ही भ्रष्ट हो गया, तो समाज के पतन मे बहुत दिन नहीं लगते । नयी सभ्यता का जीवन डेढ सौ साल से अधिक नहीं पर अभी से संसार उससे तग आ गया है। पर इसके बदले मे उसे कोई ऐसी वस्तु नही मिल रही है, जिसे वहाँ स्थापित कर सके । उसकी दशा उस मनुष्य की-सी है, जो यह तो समझ रहा है कि वह जिस रास्ते पर जा रहा है, वह ठीक रास्ता नही है ; पर वह इतनी दूर पा चुका है, कि अब लौटने की उसमे सामर्थ्य नहीं है। वह आगे ही जायगा । चाहे उधर कोई समुद्र ही क्यो न लहरे मार रहा हो। उसमे नैराश्य का हिंसक बल है, अाशा की उदार शक्ति नहीं । भारतीय साहित्य का आदर्श उसका त्याग और उत्सर्ग है। योरप का कोई व्यक्ति लखपती होकर, जायदाद खरीदकर, कम्पनियो मे हिस्से लेकर, और ऊँची सोसायटी मे मिलकर अपने को कृतकार्य समझता है। भारत अपने को उस समय कृतकार्य समझता है, जब वह इस माया-बन्धन से मुक्त हो जाता है,