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समाचारपत्रों के मुफ्तखोर पाठक

मे काम करने वाले दो सौ के लगभग या कुछ ही अधिक हो। ऐसे लोगो की कृपा के कारण हो भारतीय पत्रो का यह हाल है। कही-कहीं तो बेचारा एक ही आदमी सम्पादक, मुद्रक, व्यवस्थापक, प्रकाशक और प्रूफरीडर है। ससार के लिए यह बात नयी और आश्चर्यजनक है। यह सब इन भारतीय मुफ्तखोर पाठको की कुवृत्ति का ही परिणाम है, लेकिन अब इन मुफ्तखोर तथा अपनी भाषा के साथ अन्याय करने वालों को कुछ लज्जा आनी चाहिए। उन्हें मालूम होना चाहिए कि वे लोग भारतीय पत्रो का गला घोट रहे है और उन्हे ससार के उपहास और व्यग की एक वस्तु बना रहे है । जब कि ये लोग बडी-बड़ी रकमे व्यर्थ के कामो मे फूॅक सकते है तो कोई कारण नहीं कि ये अपने देशीय पत्रो के लिए एक छोटी सी रकम खर्च करके उनके प्राणा की रक्षा न कर सके।

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