पृष्ठ:साहित्य का उद्देश्य.djvu/२७४

यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२७६
साहित्य का उद्देश्य


शादी या अोसर मोसर मे अधे बनकर धन व्यय करते रहते है। ये लोग बीड़ी और सिगरेट मे, पान और तम्बाकू मे, नाटक और सिनेमा मे, लाटरी और जुए मे, चाय और काफी मे और विविध प्रकार के दुर्व्यसनो मे अपनी आमदनी का बहुत बड़ा हिस्सा फूक सकते है, किन्तु पत्रों के लिए एक पाई भी खर्च नही कर सकते । जीभ के स्वाद के लिए बाजारो मे मीठी और नमकीन चीजो पर ये लोग रुपये खर्च कर सकते है पर पत्रो को भूलकर भी नहीं खरीद सकते। इसके विपरीत, खरीदनेवालो को मूर्ख समझते है, यद्यपि उन्हीं की जूठन से इनका काम चलता है। अगर बहुत हिम्मत की तो किसी लाइब्रेरी के मेम्बर बन गये और लाइब्र रियन को अपनी मीठी बातो मे फंसाकर नियम के विरुद्ध अनेक पुस्तके और पत्र पढने के लिए ले गये । और भाग्यवश यदि किसी लेखक से परिचय हो गया, या अपनी तिकडम से किसी पत्र सम्पादक को साध लिया तो कहना ही क्या, कालं का खजाना उन्हे मिल गया। इस प्रकार ये लोग अपना मतलब निकाल लेते है। इससे आगे बढ़ना ये लोग मूर्खता समझते है । भारतीय पत्रों के प्रति इन लोगो के प्रेम, कर्तव्य पालन और सहानुभूति का कितना सुन्दर उदाहरण है ! क्या ऐसा सुन्दर उदाहरण आपको ससार के किसी भी देश मे मिल सकेगा ? धन्य हैं ये लोग और धन्य है अपनी भाषा के प्रति इनका अनुराग!

इन लोगो की यही दुवृत्ति भारतीय पत्रो के जीवन को सदैव सकट मे डाले रहती है। यह लोग जरा भी नहीं सोचते कि यह प्रवृत्ति समाचार पत्रो के लिए कितनी भयानक और हानिकर सिद्ध हो सकती है। इनकी इस प्रवृत्ति के कारण ही भारतीय पत्र पनपने नहीं पाते। जहाँ विदेशी पत्रो की निजी इमारतें लाखो रुपयो की होती हैं और उनके कार्यालयों मे हजारो आदमी काम करते हैं, वहाँ हमारे भारतीय पत्रों के कार्यालय किराये के, साधारण, या टूटे-फूटे मकानों में होते हैं और कहीं कहीं तो उनमे काम करने वाले मनुष्यो की संख्या एक दर्जन भी नहीं होती । नाम मात्र के लिए कुछ इने गिने पत्र ही ऐसे है जिनके कार्यालय