प्रचार नहीं कर सकती। अगर नफे की आशा हो तो प्रकाशक बड़ी खुशी से रुपये लगायेगा और तभी लेखको के लिए कुछ किग जा सकता है। इसलिए अभी तो सघ को यही सोचना पडेगा कि जनता में साहित्य की रुचि कैसे बढ़ाई जाये और किस ढग की पुस्तके तैयार की जायें जो जनता को अपनी ओर खीच सके । अतएव मघ को साहित्यिक प्रगति पर नियन्त्रण रखने की चेष्टा करनी पडेगी। इस समय जो सस्थाएँ है जैसे नागरी प्रचारिणी सभा, हिन्दी साहित्य सम्मेलन या हिन्दुस्तानी एकेडेमी, उनके काम मे सघ को हस्तक्षेप करने की जरूरत नहीं ।नागरी प्रचारिणी सभा अब विशेषकर पुराने कवियो की ओर उनकी रचनाओ की खोज कर रही है। वह साहित्यिक पुरातत्व से मिलती जुलती चीज़ है । सम्मेलन को परीक्षाओ से विशेष दिलचस्पी है और हिन्दुस्तानी एकेडेमी एक सरकारी सस्था है, जहाँ प्रोफेसरो का राज है और जहाँ साधारण साहित्य-सेवियो के लिए स्थान नहीं । सघ का कार्य क्षेत्र इनसे अलग और ऐसा होना चाहिए जिससे साहित्य और उसके पुजारी दोनो की सेवा हो सके।
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