प्रस्ताव भी लोगों के मन मे हो। ऐसी दशा मे यही उचित जान पड़ता
है कि सघ के कार्यक्रम को निश्चय करने के लिए सभी सदस्यों को किसी
केन्द्र मे निमन्त्रित किया जाये ओर वहा सब पक्षों की तजवीजे सुनने और
उन पर विचार करने के बाद कोई राय कायम की जाये। और तब
इस निश्चय को कार्य रूप मे लाने के लिए एक कार्यकारिणी समिति
बनाई जाय । उस सम्मेलन में प्रत्येक सदस्य को अपने प्रस्ताव पेश
करने और उसका समर्थन कराने का अधिकार होगा और जो कुछ होगा
बहुमत से होगा, इसलिए किसी को शिकायत का मौका न होगा । हम
इतना अवश्य निवेदन कर देना चाहते हैं कि मौजूदा हालत ऐसी नहीं
है कि प्रकाशकों को लेखको के साथ ज्यादा न्यायसगत व्यवहार करने पर
मजबूर किया जा सके। साहित्य का प्रकाशन करने वाले प्रकाशकों की
वास्तविक दशा का जिन्हे अनुभव है, वह यह स्वीकार करेंगे कि इस
समय एक भी ऐसा साहित्य ग्रन्थ प्रकाशक नहीं है जो नफे से काम कर
रहा हो। जो प्रकाशक धर्मग्रन्थों या पाठ्यपुस्तको का व्यापार करते है
उनकी दशा इतनी बुरी नहीं है, कुछ तो खासा लाभ उठा रहे हैं।
लेकिन जो लोग मुख्यतः साहित्य ग्रन्थ ही निकाल रहे हैं, वे प्रायः बड़ी
मुश्किल से अपनी लागत निकाल पाते हैं। कारण है साधारण जनता
की साहित्यिक अरुचि । जब प्रकाशक को यही विश्वास नहीं कि किसी
पुस्तक के कागज़ और छपाई की लागत भी निकलेगी या नहीं, तो वह
लेखकों को पुरस्कार या रायल्टी कहाँ से दे सकता है। नतीजा यह होगा
कि प्रकाशको को अपना कारोबार चलाने के लिए सड़ियल पुस्तके निका-
लनी पड़ेंगी और अच्छे लेखको की पुस्तकें कोई प्रकाशक न मिलने के
कारण पड़ी रह जायेंगी। साहित्यिक रचनात्रो का प्रकाशन प्रायः बन्द
सा है। प्रकाशक नई पुस्तकें छापते डरते हैं, और नये लेखको के लिए
तो द्वार ही बन्द हैं। इसलिए पहले ऐसी परिस्थिति तो पैदा हो कि
प्रकाशक को प्रकाशन से नफे की आशा हो । हिन्दी बीस करोड़ व्यक्तियो
की भाषा होकर भी गुजराती, मराठी या बगला के बराबर पुस्तकों का
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साहित्य का उद्देश्य