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साहित्यिक उदासीनता

 

हिन्दी साहित्य में आजकल जो शिथिलता-सी छाई हुई है, उसे देखकर साहित्य प्रेमियों को हताश होना पड़ता है। आज हिन्दी में एक भी ऐसा सफल प्रकाशक नहीं, जो साल भर में दो चार पुस्तकों से अधिक निकाल सकता हो। प्रत्येक प्रकाशक के कार्यालय में हस्त-लिखित पुस्तकों का ढेर लगा पड़ा है; पर प्रकाशकों को साहस नहीं होता कि उन्हें प्रकाशित कर सके। दो-चार इने गिने लेखकों की पुस्तकें ही छपती हैं; पर वहाँ भी पुस्तकों की निकासी नहीं होती। दो हजार का एडीशन बिकते-बिकते कम-से-कम तीन साल लग जाते हैं। अधिकांश पुस्तकों की तो दससाल में अगर दो हजार प्रतियाँ निकल जायँ, तो गनीमत समझी जाती है। जब पुस्तकों की बिक्री का यह हाल है, तो प्रकाशक पुरस्कार कहाँ से दे और दें भी तो वह पत्र-पुष्प से अधिक नहीं हो सकता। पत्र-पुष्प से लेखक को क्या संतोष हो सकता है क्योंकि वह भी आदमी है और उसे भी जरूरत होती ही हैं। इसका फल यह है, कि लेखक अलग उत्साहहीन होते जाते हैं, प्रकाशक अलग कंधा डालते जाते हैं और साहित्य की जो उन्नति होनी चाहिए, वह नहीं होने पाती। लेखक को अच्छा पुरस्कार मिलने की आशा हो तो वह तन-मन से रचना में प्रवृत्त हो सकता है, और प्रकाशक को यदि अच्छी बिक्री की आशा हो तो वह रुपये लगाने को भी तैयार है। लेकिन सारा दारमदार पुस्तकों की बिक्री पर है और जब तक हिन्दी-पाठक पुस्तकें खरीदना अपना कर्तव्य न समझने लगेंगे, यह शिथिलता ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। कितने खेद की बात

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