उनके इर्द गिर्द क्या हो रहा है, दुनिया किस गति से बढी जा रही
है, उन्हे इसकी खबर न थी। और शायद वस्तियार उन विद्वानो से
मुजाहिम न होता और उनकी वृत्ति ज्यो की त्यो बनी रहती, न वे उसी
बेफिक्री से अपना शास्त्र पढे जाते और आध्यात्मिक विचारों के
आनन्द लूटते रहते और अमर जीवन की मंजिल नापते चले जाते।
उधर पश्चिम के नाविक समुद्र के तूफान का मुकाबला करके ससार विजय
कर रहे थे और हमारे बाबा दादा बैठे मुक्ति का मार्ग ढूँढ रहे थे। पश्चिम
ने जिस वस्तु के लिए तपस्या की, उसे वह वस्तु मिली। हमारे पूर्वजो ने
जिस वस्तु की तपस्या की, वह उन्हे मिली या मिलेगी इसके बारे
मे अभी कुछ कहना कठिन है। जिसके लिए ससार मिथ्या हो,
और दुःख का घर हो, उसकी यदि संसार उपेक्षा करे, तो उन्हें शिकायत
का क्या मौका है ? हमे स्वर्ग की ओर से निश्चिन्त रहना चाहिए, वह
हमे मिलेगा और जरूर मिलेगा । चतुर्वेदी जी के ही शब्दो में
'ग्रन्थो के बन्धनो के आदी हम स्वामी राम के कथन मे भी मुक्ति का
गीत हूँढने के बजाय वेदान्त का बन्धन हूँढने लगे। और क्यो न
हूँढते ? बन्धनो के सिवा, और ग्रन्थो के सिवा हमारे पास और क्या था ?
पडित लोग पढते थे और योद्धा लोग लड़ते थे और एक दूसरे की
बेइज्जती करते थे और लड़ाई से फुरसत मिलती थी तो व्यभिचार करते
थे। यह हमारो व्यावहारिक सस्कृति थी। पुस्तको मे वह जितनी ही ऊची
और पवित्र थी, व्यवहार मे उतनी ही निन्द्य और निकृष्ट ।
आगे चलकर सभापति जी ने हमारी वर्तमान साहित्यिक मनोवृत्ति का जो चित्र खींचा है, उसका एक एक शब्द यथार्थ है :
'हम अपनी इस आदत को क्या करे ? यदि किसी के दोष
सुनता हूँ तो तुरन्त मान लेता हूँ और उस अद्रव्य को पेट मे लेकर
फिर बाहर लाता हूँ और अपनी साहित्यिक पीढी को उस निन्द्य निधि की
खैरात बाटता हूँ । संसार के दोषो का मैं बिना प्रमाण सरल विश्वासी
होता हूँ और यह चाहता हूँ कि मेरी ही तरह मेरा पाठक भी मेरी