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अतीत का मुर्दा बोझ

 

२१, २२ सितम्बर को पटना ने अपने साहित्य परिषद् का कई बरसों के बाद आने वाला वार्षिकोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया। हिन्दी के शब्द जादूगर श्री माखनलाल जी चतुर्वेदी सभापति थे और साहित्यकारों का अच्छा जमघट था। हम तो अपने दुर्भाग्य से उसमें सम्मिलित होने का गौरव न पा सके। शुक्रवार की सन्ध्या समय से ही हमें ज्वर हो आया और वह सोमवार को उतरा। हम छटपटा कर रह गये। रविवार को भी हम यही आशा करते रहे कि आज ज्वर उतर जायगा और हम चले जायंगे, लेकिन ज्वर ने उस वक्त गला छोड़ा, जब परिषद् का उत्सव समाप्त हो चुका था। पटने जाकर खाट पर सोने से काशी में खाट पर पड़े रहना और ज्यादा सुखद था, और यों भी बीमारी के समय, चाहे वह हलकी ही क्यों न हो, बुजुर्गों के मतानुसार, और धर्मशास्त्रों के आदेशानुसार, काशी के समीप ही रहना ज्यादा कल्याणकारी होता है ...लौकिक और पारलौकिक दोनो दृष्टियों से! अतएव हमें आशा है कि हमारे साहित्यिक बन्धुओं ने हमारी गैरहाजिरी मुआफ कर दी होगी। इस ज्वर ने ऐसा अच्छा अवसर हमसे छीन लिया, इसका बदला हम उससे अवश्य लेंगे, चाहे हमे अहिंसा नीति तोड़नी क्यों न पड़े। सभापति का जो भाषण छपकर बासी भात के रूप में मिला है, वह गर्म गर्म कितना स्वादिष्ट होगा...यह सोचता हूँ तो यही जी चाहता है कि ज्वर महोदय कहीं फिर दिखें, लेकिन उनका कहीं पता भी नहीं। इस भाषण मे जीवन है, आदेश है, मार्ग निर्देशन

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