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उट्ठो मेरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो
 

अबकी बिहार का प्रांतीय साहित्य सम्मेलन २२-२३ फरवरी को पूर्णिया में हुआ। श्री बाबू यशोदानन्दन जी ने, जो हिन्दी के वयोवृद्ध साहित्य-सेवी हैं, सभापति का आसन ग्रहण किया था। इस जीर्णावस्था में भी उन्होंने यह दायित्व स्वीकार किया, यह उनके प्रौढ़ साहित्यानुराग का प्रमाण है। प्रान्त के हरेक भाग से प्रतिनिधि आये हुए थे और खूब उत्साह था। मेहमानों के आदर-सत्कार में स्वागताध्यक्ष श्री बाबू रघुवंशसिह के सुप्रबन्ध से कोई कमी नहीं हुई। सभापति महोदय ने अपने भाषण में हिंदी भाषा, साहित्य, देव नागरी लिपि आदि विषयों का विस्तार से उल्लेख किया और बिहार में हिन्दी के प्रचार और प्रगति की जो चर्चा की, वह बिहार के लिए गौरव की वस्तु है। हमें नही मालूम था कि कविता में खड़ी बोली के व्यवहार की प्रेरणा पहले बिहार में हुई, और हिन्दी साहित्य-सम्मेलन की कल्पना भी बिहार की ही ऋणी है। मुसलमानी शासन-काल में हिन्दी की वृद्धि क्योंकर हुई, इस पर आपने निष्पक्ष प्रकाश डाला। आप उर्दू को कोई स्वतंत्र भाषा नहीं मानते, बल्कि उसे हिन्दी का ही एक रूप कहते हैं। आपने कहा-

"मुसलमानी-शासन ने हिन्दी-भाषा के प्रसार और प्रचार के मार्ग में बड़ी सहायता पहुँचाई है। उसी काल में हिन्दी के तीन रूप हो गये थे। एक नागरी लिपि में व्यक्त ठेठ हिन्दी, जिसे लोग अधिकांश में 'भाषा' या 'देव-नागरी' या 'नागरी' कहते थे, दूसरा उर्दू यानी फारसी लिपि में लिखी हुई फारसी मिश्रित हिन्दी, अर्थात् उर्दू और तीसरी पद्य हिन्दी यानी ब्रज-भाषा। जो हिन्दी आज राष्ट्र-भाषा के सिंहासन पर अभिषिक्त होने की अधिकारिणी है, वह देव नागरी है। यह और उर्दू वस्तुतः एक ही है और दिल्ली प्रांत की बोली है।'

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