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सहित्य का उदेश्य


के साथ रहने की इच्छा भी हमे क्यो सताये ?हम अमीरों की श्रेणी में अपनी गिनती क्यो कराये ? हम तो समाज के झण्डा लेकर चलनेवाले सिपाही है और सादी जिन्दगी के साथ ऊँची-निगाह-हमारे जीवन का लक्ष्य है। जो आदमी सच्चा कलाकार है, वह स्वार्थमय जीवन का प्रेमी नही हो सकता । उसे अपनी मनस्तुष्टि के लिए दिखावे की आव- श्यकता नहीं— उससे तो उसे घृणा होती है । वह तो इकबाल के साथ कहता है-

मर्दम आजादम आगूना रायूरम कि मरा,
मीतवा कुश्तव येक जामे जुलाले दीगरा ।

[अर्थात् मै आजाद हूँ और इतना हयादार हूँ कि मुझे दूसरों के निथरे हुए पानी के एक प्याले से मारा जा सकता है। ]

हमारी परिषद् ने कुछ इसी प्रकार के सिद्धान्तों के साथ कर्म-क्षेत्र में प्रवेश किया है । साहित्य का शराब-कबाब और राग-रग का मुखापेक्षी बना रहना उसे पसन्द नहीं । वह उसे उद्योग और कर्म का सन्देश- वाहक बनाने का दावेदार है । उसे भाषा से बहस नहीं । आदर्श व्यापक होने से भाषा अपने-आप सरल हो जाती है । भाव-सौन्दर्य बनाव-सिंगार से बेपरवाही ही दिखा सकता है । जो साहित्यकार अमीरों का मुंह जोहने- वाला है, वह रईसी रचना-शैली स्वीकार करता है; जो जन-साधारण का है वह जन-साधारण की भाषा मे लिखता है। हमारा उद्देश्य देश में ऐसा वायु-मण्डल उत्पन्न कर देना है, जिसमे अभीष्ट प्रकार का साहित्य उत्पन्न हो सके और पनप सके । हम चाहते हैं कि साहित्य केन्द्रों मे हमारी परिषदे स्थापित हों और वहाँ साहित्य की रचनात्मक प्रवृत्तियो पर नियम- पूर्वक चर्चा हो, निबध पढ़े जाये, बहस हो, आलोचना-प्रत्यालोचना हो । तभी वह वायु-मंडल तैयार होगा। तभी साहित्य में नये युग का आविर्भाव होगा।

हम हर एक सूबे में, हर एक जबान में, ऐसी परिषदे स्थापित कराना चाहते हैं, जिसमे हर एक भाषा में हम अपना सन्देश पहुॅचा सकें। यह