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हिन्दी-उर्दू की एकता


साहित्य की सबसे अच्छी तारीफ जो की गयी है,वह यह है कि वह अच्छे से अच्छे दिल और दिमाग के अच्छे से अच्छे भावो और विचारो का संग्रह है । आपने अंग्रेजी साहित्य पढ़ा है। उन साहित्यिक चरित्रो के साथ आपने उससे कहीं ज्यादा अपनापा महसूस किया है जितना आप किसी यहाँ के साहब बहादुर से कर सकते है । आप उसकी इसानी सूरत देखते है, जिसमे वही वेदनाएँ है, वही प्रेम है, वही कमजोरियाँ हैं, जो हममें और आप मे है । वहाँ वह हुकूमत और गुरूर का पुतला नहीं, बल्कि हमारे और अापका-सा इन्सान है जिसके साथ हम दुखी होते है, हॅसते है, सहानुभूति करते हैं । साहित्य बदगुमानियों को मिटानेवाली चीज है । अगर आज हम हिन्दू और मुसलमान एक दूसरे के साहित्य से ज्यादा परिचित हो, तो मुमकिन है हम अपने को एक दूसरे से कहीं ज्यादा निकट पाये । साहित्य मे हम हिन्दू नहीं है, मुसलमान नहीं हैं, ईसाई नहीं है, बल्कि मनुष्य है, और वह मनुष्यता हमे और आपको आकर्षित करती है । क्या यह खेद कि बात नहीं है कि हम दोनों जो एक मुल्क मे पाठ सौ साल से रहते है, एक दूसरे के पडोस में रहते है, एक दूसरे के साहित्य से इतने बेखबर हैं ? यूरोपियन विद्वानों को देखिए । उन्होने हिन्दुस्तान के मुतअल्लिक हर एक मुमकिन विषय पर तहकीकाते की हैं, पुस्तके लिखी है, वह हमे उससे ज्यादा जानते है जितना हम अपने को जानते है। उसके विपरीत हम एक दूसरे से अनभिज्ञ रहने ही मे मग्न है । साहित्य मे जो सबसे बड़ी खूबी है, वह यह है कि वह हमारी मान- वता को दृढ बनाता है, हममे सहानुभूति और उदारता के भाव पैदा करता है । जिस हिन्दू ने कर्बला के मार्के की तारीख पढ़ी है, यह असम्भव है कि उसे मुसलमानों से सहानुभूति न हो । उसी तरह जिस मुसलमान ने रामायण पढा है, उसके दिल में हिन्दू मात्र से हमदर्दी पैदा हो जाना यकीनी है । कम-से-कम उत्तरी हिन्दुस्तान मे हरेक शिक्षित हिन्दू-मुसलिम को अपनी तालीम अधूरी समझनी चाहिए, अगर वह मुसलमान है तो हिन्दुओ के और हिन्दू है तो मुसलमानों के साहित्य से