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साहित्य का उद्देश्य

सूबा सूबे के लिए, जिला जिले के लिए, हिन्दू हिन्दू के लिए, मुसलिम मुसलिम के लिए, ब्राह्मण ब्राह्मण के लिए, वैश्य वैश्य के लिए, कपूर कपूर के लिए, सक्सेना सक्सेना के लिए, इतनी दीवारो और कोठरियो के अन्दर कौमियत कै दिन सॉस ले सकेगी! हम देखते है कि ऐतिहासिक परम्परा प्रान्तीयता की ओर है। आज जो अलग अलग सूबे हैं किसी जमाने में अलग-अलग राज थे, कुदरती हदे भी उन्हे दूसरे सूबों से अलग किये हुए हैं, और उनकी भाषा, साहित्य, संस्कृति सब एक हैं । लेकिन एकता के ये सारे साधन रहते हुए भी वह अपनी स्वाधीनता को कायम न रख सके, इसका सबब यही तो है कि उन्होने अपने को अपने किले मे बन्द कर लिया और बाहर की दुनिया से कोई सम्बन्ध न रखा । अगर उसी अलहदगी की रीति से वह फिर काम लेगे तो फिर शायद तारीख अपने को दोहराये । हमे तारीख से यह सबक न लेना चाहिए कि हम क्या थे, यह भी देखना चाहिए कि हम क्या हो सकते थे। अकसर हमे तारीख को भूल जाना पडता है । भूत हमारे भविष्य का रहबर नहीं हो सकता । जिन कुपथ्यो से हम बीमार हुए थे, क्या अच्छे हो जाने पर फिर वही कुपथ्य करेंगे ? और चूँकि इस अलहदगी की बुनियाद भाषा है, इसलिए हमे भाषा ही के द्वार से प्रान्तीयता की काया मे राष्ट्रीयता के प्राण डालने पड़ेगे । प्रान्तीयता का सदुपयोग यह है कि हम उस किसान की तरह जिसे मौरूसी पट्टा मिल गया हो अपनी जमीन को खूब जोते, उसमे खूब खाद डाले और अच्छी-से-अच्छी फसल पैदा करे । मगर उसका यह अाशय हर्गिज न होना चाहिए कि हम बाहर से अच्छे बीज और अच्छी खाद लाकर उसमे न डाले । प्रान्तीयता अगर अयोग्यता को कायम रखने का बहाना बन जाय तो यह उस प्रान्त का दुर्भाग्य होगा और राष्ट्र का भी । इस नये खतरे का सामना करना होगा और वह मेल पैदा करनेवाली शक्तियों को संगठित करने ही से हो सकता है।

सज्जनो, साहित्यिक जागृति किसी समाज की सजीवता का लक्षण है।