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हिन्दी-उर्दू की एकता

नह कर सकते । साहित्य का स्रष्टा उन चोटो को हमारे दिलों पर इस तरह अकित करता है कि हम उनको तीव्रता को सौगुने वेग के साथ महसूस करने लगते हैं। इस तरह साहित्य की आत्मा आदर्श है और उसकी देह यथार्थ चित्रण । जिस साहित्य मे हमारे जीवन की समस्याएँ न हो, हमारी आत्मा को स्पर्श करने की शक्ति न हो, जो केवल जिन्सी भावो मे गुदगुदी पैदा करने के लिए, या भाषा-चातुरी दिखाने के लिए रचा गया हो वह निर्जीव साहित्य है, सत्यहीन, प्राणहीन । साहित्य मे हमारी आत्माओ को जगाने की, हमारी मानवता को सचेत करने की, हमारी रसिकता को तृप्त करने की शक्ति होनी चाहिए। ऐसी ही रचनाओ से कौमे बनती हैं । वह साहित्य जो हमे विलासिता के नशे मे डुबा दे, जो हमे वैराग्य, पस्तहिम्मती, निराशावाद की ओर ले जाय, जिसके नजदीक ससार दुःख का घर है और उससे निकल भागने मे हमारा कल्याण है, जो केवल लिप्सा और भावुकता मे डूबी हुई कथाएँ लिखकर कामुकता को भड़काये, निर्जीव है । सजीव साहित्य वह है, जो प्रेम से लबरेज हो, उस प्रेम से नहीं, जो कामुकता का दूसरा नाम है, बल्कि उस प्रेम से जिसमे शक्ति है, जीवन है, आत्म-सम्मान है। अब इस तरह की नीति से हमारा काम न चलेगा।

रहिमन चुप ह बैठिये, देखि दिनन को फेर

अब तो हमे डा० इकबाल का शंखनाद चाहिए-

ब शाखे ज़िन्दगिये मा नमीजे तिश्ना बसस्त

तलाशे चश्मए हैबॉ दलीले ब तलबीस्त । १

ता कुजा दर तहे बाले दिगरॉ मी बाशी,

दर हवाये चमन आज़ाद परीदन् अामोज़ ।२


१) मेरे जीवन की डाली के लिए तृषा की तरी ही काफी है । अमृतकुंड की खोज मे भटकना आकाक्षा के अभाव का प्रमाण है। २) दूसरो के डैनो का आश्रय तुम कब तक लोगे ? चमन की हवा मे आजाद होकर उड़ना सीखो।