सर्वाङ्गपूर्ण बनाना है, जहाँ समानता केवल नैतिक बन्धनों पर आश्रित
न रहकर अधिक ठोस रूप प्राप्त कर ले। हमारे साहित्य को उसी आदर्श
को अपने सामने रखना है।
हमे सुन्दरता की कसौटी बदलनी होगी। अभी तक यह कसौटी अमीरी और विलासिता के ढंग की थी। हमारा कलाकार अमीरों का पल्ला पकड़े रहना चाहता था, उन्हीं की कद्रदानी पर उसका अस्तित्व अवल- म्बित था और उन्ही के सुख-दुःख, आशा-निराशा, प्रतियोगिता और प्रतिद्वन्द्विता की व्याख्या कला का उद्देश्य था । उसकी निगाह अन्तःपुर और बॅगलो की ओर उठती थी । झोपड़े और खंँडहर उसके ध्यान के अधिकारी न थे । उन्हे वह मनुष्यता की परिधि के बाहर समझता था । कभी इनकी चर्चा करता भी था, तो इनका मजाक उड़ाने के लिए, ग्रामवासी की देहाती वेश भूषा ओर तौर-तरीके पर हँसने के लिए । उसका शीन-काफ दुरुस्त न होना या मुहाविरों का गलत उपयोग उसके व्यंग्य- विद्रूप की स्थायी सामग्री थी । वह भी मनुष्य है, उसके भी हृदय है, और उसमे भी आकाक्षाएँ है,— यह कला की कल्पना के बाहर की बात थी।
कला नाम था और अब भी है, संकुचित रूप-पूजा का, शब्द योजना का, भाव-निबन्धन का । उसके लिए कोई आदर्श नहीं है, जीवन का कोई ऊँचा उद्देश्य नहीं है,— भक्ति, वैराग्य, अध्यात्म और दुनिया से किनारा- कशी उसकी सबसे ऊँची कल्पनाएँ है। हमारे उस कलाकार के विचार से जीवन का चरम लक्ष्य यहीं है । उसकी दृष्टि अभी इतनी व्यापक नहीं कि जीवन-संग्राम में सौदर्य का परमोत्कर्ष देखे । उपवास और नम्रता में भी सौदर्य का अस्तित्व सम्भव है, इसे कदाचित् वह स्वीकार नहीं करता। उसके लिए सौन्दर्य सुन्दर स्त्री में है— उस बच्चोंवाली गरीब रूप-रहित स्त्री मे नहीं, जो बच्चे को खेत की मेड़ पर सुलाये पसीना बहा रही है । उसने निश्चय कर लिया है कि रँगे होठों, कपोलों और भौंहों में निस्सन्देह