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हिन्दी-उर्दू की एकता

अपने विचार से काम लेना पडेगा । सत्य, शिवं, सुन्दर के उसूल को यहाँ भी बरतना पडेगा । सियासियात ने सम्प्रदायो को दो कैम्पो मे खड़ा कर दिया है । राजनीति की हस्ती ही इस पर कायम है कि दोनों आपस मे लड़ते रहे । उनमे मेल होना उसकी मृत्यु है। इसलिए वह तरह-तरह के रूप बदलकर और जनता के हित का स्वॉग भरकर अब तक अपना व्यवसाय चलाती रही है। साहित्य धर्म को फिकाबन्दी की हद तक गिग हुआ नहीं देख सकता । वह समाज को सम्प्रदायो के रूप मे नही, मानवता के रूप मे देखता है। किसी धर्म की महानता और फजीलत इसमे है कि वह इन्सान को इन्सान का कितना हमदर्द बनाता है, उसमे मानवता ( इन्सानियत ) का कितना ऊँचा आदर्श है, और उस आदर्श पर वहाँ कितना अमल होता है । अगर हमारा धर्म हमे यह सिखाता है कि इन्सानियत और हमदर्दी और भाईचारा सब कुछ अपने ही धर्मवालो के लिए है, और उस दायरे से बाहर जितने लोग है, सभी गैर हैं, और उन्हे जिन्दा रहने का कोई हक नहीं, तो मै उस धर्म से अलग होकर विधर्मी होना ज्यादा पसन्द करूँगा। धर्म नाम है उस रोशनी का जो कतरे को समुद्र मे मिल जाने का रास्ता दिखाती है, जो हमारी जात को इमाअोस्त मे, हमारी आत्मा को व्यापक सर्वात्म मे, मिले होने की अनुभूति या यकीन कराती है। और चूकि हमारी तबीयतें एक-सी नही हैं, हमारे संस्कार एक-से नहीं हैं, हम उसी मंजिल तक पहुँचने के लिए अलग-अलग रास्ते अख्तियार करते हैं। इसीलिए भिन्न-भिन्न धर्मों का ज़ हर हुश्रा है । यह साहित्यसेवियो का काम है कि वह सच्चो धार्मिक जाग्रति पैदा करें। धर्म के प्राचार्यों और राजनीति के पण्डितो ने हमे गलत रास्ते पर चलाया है। मगर मैं दूसरे विषय पर आ गया । हिन्दुस्तानी को व्याव- हारिक रूप देने के लिए दूसरी तदबीर यह है कि मैट्रिकुलेशन तक उर्दू और हिन्दी हरेक छात्र के लिए लाजमी कर दी जाय । इस तरह हिन्दुओ को उर्दू मे और मुसलमानों को हिन्दी मे काफी महारत हो जायगी,