मुहसिनो को धन्यवाद न देना चाहिये, मगर क्या ऐसी सस्थाएँ न खुल सकती थी और क्या उनसे कौम का कुछ कम उपकार होता जो भाषणों और पुस्तको से जनता मे साहित्य और विज्ञान का प्रचार करती और उनको सभ्यता की ऊँची सतह पर लाती ? आर्यसमाज ने जिस तरह के विषयो का जनता मे प्रचार किया है उन विषयो को साधारण पढ़ा-लिखा आर्यसमाजी भी खूब समझता है । अदालतो मामलो को, या मुक्ति ओर आवागमन जैसे गम्भीर विषयों को गाव के किसान भी अगर ज्यादा नहीं समझते, तो साधारण पढे-लिखो के बराबर तो समझ ही लेते है। इसी तरह अन्य विषयो की चर्चा भी जनता के सामने होती रहती तो हमे यह शिकायत न होती कि जनता हमारे विचारो को समझनही सकती। मगर हमने जनता की परवाह ही कब की है ? हमने केवल उसे दुधार गाय समझा है । वह हमारे लिए अदालतो मे मुकदमे लाती रहे, हमारे कारखानों की बनी हुई चीजें खरीदती रहे । इनके सिवा हमने उससे कोई प्रयोजन नही रखा,जिसका नतीजा यह है कि आज जनता को अंग्रेजो पर जितना विश्वास है उतना अपने पढे-लिखे भाइयो पर नही ।
सयुक्त-प्रान्त के साबिक से पहले के गवर्नर सर विलियम मैरिस ने इलाहाबाद की हिन्दुस्तानी एकेडेमी खोलते वक्त हिन्दी-उर्दू के लेखकों को जो सलाह दी थी, उसे ध्यान मे रखने की आज भी उतनी ही जरूरत है, जितनी उस वक्त थी, शायद और ज्यादा । आपने फरमाया कि हिन्दी के लेखको को लिखते वक्त यह समझते रहना चाहिए कि उनके पाठक मुसलमान हैं । इसी तरह उर्दू के लेखको को यह खयाल रखना चाहिए कि उनके कारी हिन्दू है।
यह एक सुनहरी सलाह है और अगर हम इसे गॉठ बाँध लें, तो जबान का मसला बहुत कुछ तय हो जाय । मेरे मुसलमान दोस्त मुझे माफ फरमाये अगर मै कहूँ कि इस मुआमले मे वह हिन्दू लेखको से ज्यादा खतावार है । सयुक्तप्रान्त की कॉमन लैग्वेज रीडरों को देखिए ।