और समझते है । जो लोग इस तरह की जिन्दगी बसर करने के शौकीन हैं उनके लिए तो उर्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तानी का कोई झगड़ा ही नहीं। वह इतनी बुलदी पर पहुँच गये है कि नीचे की धूल और गर्मी उन पर कोई असर नही कर सकती । वह मुअल्लक हवा मे लटके रह सकते हैं! लेकिन हम मब तो हजार कोशिश करने पर भी वहाँ तक नही पहुँच सकते। हमे तो इसी धूल और गर्मी मे जीना और मरना है । Intelligentsia मे जो कुछ शक्ति और प्रभाव है, वह जनता ही से आता है। उससे अलग रहकर वे हाकिम की सूरत मे ही रह सकते है, खादिम की सूरत मे, जनता के होकर नहीं रह सकते। उनके अरमान और मसूबे उनके है, जनता के नहीं । उनकी आवाज उनको है, उनमे जनसमूह की आवाज की गहराई और गरिमा और गम्भीरता नहीं है। वह अपने प्रतिनिधि है, जनता के प्रतिनिधि नहीं ।
बेशक, यह बड़ा जोरदार जवाब है कि जनता मे शिक्षा इतनी कम
है, समझने की ताकत इतनी कम कि अगर हम उसे जेहन मे रखकर
कुछ बोलना या लिखना चाहे, तो हमे लिखना और बोलना बन्द करना
पड़ेगा । यह जनता का काम है कि वह साहित्य पढने और गहन विषयो
को समझने की ताकत अपने मे लाये । लेखक का काम तो अच्छी-से
अच्छी भाषा मे ऊँचे-से ऊँचे विचारो को प्रकट करना है । अगर
जनता का शब्दकोष सौ दो-सौ निहायत मामूली रोजमर्रा के काम के
शब्दो के सिवा और कुछ नहीं है, तो लेखक कितनी ही सरल भाषा
लिखे, जनता के लिए वह कठिन ही होगी। इस विषय मे हम इतना
अर्ज करेगे कि जनता को इस मानसिक दशा मे छोड़ने की जिम्मेदारी
भी हमारे ही ऊपर है। हममे जिनके पास इल्म है, और फुरसत है,
यह उनका फर्ज था कि अपनी तकरीरों से जनता मे जागृति पैदा करते,
जनता मे ज्ञान के प्रचार के लिए पुस्तके लिखते और सफरी कुतुबखाने
कायम करते । हममे जिन्हे मकदरत है, वह मदरसे खोलने के लिए
लाखों रुपये खैरात करते है। मैं यह नहीं चाहता कि कौम को ऐसे