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साहित्य का उदेश्य


वे इसी वृद्धि और विकास के सहायक है। कलाकार अपनी कला से सोन्दर्य की सृष्टि करके परिस्थिति को विकास के उपयोगी बनाता है।

परन्तु सौन्दर्य भी और पदार्थों की तरह स्वरूपस्थ और निरपेक्ष नहीं, उसकी स्थिति भी सापेक्ष है। एक रईस के लिए जो वस्तु सुख का साधन है, वही दूसरे के लिए दुःख का कारण हो सकती है। एक रईस अपने सुरभित सुरम्य उद्यान में बैठकर जब चिड़ियों का कल गान सुनता है तो उसे स्वर्गीय सुख की प्राप्ति होती है, परन्तु एक दूसरा सज्ञान मनुष्य वैभव की इस सामग्री को घृणिततम वस्तु समझता है।

बन्धुत्व और समता,सभ्यता तथा प्रेम सामाजिक जीवन के प्रारम्भ से ही, आदर्शवादियों का सुनहला स्वप्न रहे हैं । धर्म-प्रवर्तकों ने धार्मिक, नैतिक ओर आध्यात्मिक बंधनों से इस स्वप्न को सचाई बनाने का सतत किन्तु निष्फल यत्न किया है। महात्मा बुद्ध, हजरत ईसा, हजरत मुहम्मद आदि सभी पैगम्बरों और धर्म प्रवर्तकों ने नीति की नीव पर इस समता की इमारत खड़ी करनी चाही, पर किसी को सफलता न मिली और छोटे-बड़े का भेद जिस निष्ठुर रूप मे आज प्रकट हो रहा है, शायद कभी न हुआ था।

'आजमाये को आजमाना मूर्खता है', इस कहावत के अनुसार यदि हम अब भी धर्म और नीति का दामन पकड़कर समानता के ऊँचे लक्ष्य पर पहुॅंचना चाहे, तो विफलता ही मिलेगी। क्या हम इस सपने को उत्तेजित मस्तिष्क की सृष्टि समझकर भूल जायें ? तब तो मनुष्य की उन्नति और पूर्णता के लिए कोई आदर्श ही बाकी न रह जायगा । इससे कहीं अच्छा है कि मनुष्य का अस्तित्व ही मिट जाय । जिस आदर्श को हमने सभ्यता के आरम्भ से पाला है, जिसके लिए मनुष्य ने, ईश्वर जाने कितनी कुरबानियों को हैं, जिसकी परिणति के लिए धर्मों का आवि- र्भाव हुआ, मानव-समाज का इतिहास जिस आदर्श की प्राप्ति का इति- हास है, उसे सर्वमान्य समझकर, एक अमिट सचाई समझकर, हमे उन्नति के मैदान में कदम रखना है। हमे एक ऐसे नये संघटन को