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हिन्दी-उर्दू की एकता


समाज को दूषित कर रहा है।समाज के मानसिक और बौद्धिक धरातल (सतह) को आर्यसमाज ने जितना उठाया है, शायद ही भारत की किसी संस्था ने उठाया हो । उसके उपदेशको ने वेदो और वेदागो के गहन-विषयो को जन-साधारण की सम्पत्ति बना दिया, जिन पर विद्वानों और आचार्यों के कई-कई लीवरवाले ताले लगे हुए थे। आज आर्य- समाज के उत्सवो और गुरुकुलो के जलसो मे हजारो मामूली लियाकत के स्त्री-पुरुष सिर्फ विद्वानो के भाषण सुनने का श्रानन्द उठाने के लिए खिंचे चले जाते है । गुरुकुलाश्रम को नया जन्म देकर आर्यसमाज ने शिक्षा को सम्पूर्ण बनाने का महान् उद्योग किया है। सम्पूर्ण से मेरा आशय उस शिक्षा का है जो सर्वाङ्गपूर्ण हो, जिसमे मन, बुद्धि, चरित्र और देह, सभी के विकास का अवसर मिले । शिक्षा का वर्तमान आदर्श यही है । मेरे खयाल मे वह चिरसत्य है । वह शिक्षा जो सिर्फ अक्ल तक ही रह जाय, अधूरी है । जिन सस्थाओ में युवको मे समाज से पृथक रहनेवाली मनोवृत्ति पैदा हो, जो अमीर और गरीब के भेद को न सिर्फ कायम रखे बल्कि और मजबूत करे, जहाँ पुरुषार्थ इतना कोमल बना दिया जाय कि उसमे मुशकिलो का सामना करने की शक्ति न रह जाय, जहाँ कला और सयम मे कोई मेल न हो, जहाँ की कला केवल केवल नाचने-गाने और नकल करने मे ही जाहिर हो, उस शिक्षा का मै कायल नहीं हूँ । शायद ही मुल्क मे कोई ऐसी शिक्षासंस्था हो जिसने कौम की पुकार का इतनी जवॉमर्दी से स्वागत किया हो। अगर विद्या हममे सेवा और त्याग का भाव न लाये, अगर विद्या हमे आदर्श के लिए सीना खोलकर खड़ा होना न सिखाये, अगर बिद्या हममे स्वाभि- मान न पैदा करे, और हमे समाज के जीवनप्रवाह से अलग रखे तो उस विद्या से हमारी अविद्या अच्छी । और समाज ने हमारी भाषा के साथ जो उपकार किया है उसका सबसे उज्ज्वल प्रमाण यह है कि स्वामी दयानन्द ने इसी भाषा में सत्यार्थप्रकाश लिखा और उस वक्त लिखा जब उसकी इतनी चर्चा न थी। उनकी बारीक नजर ने देख लिया