सकते है। जब तक मुल्की दिमाग अँग्रेजो की गुलामी मे खुश होता
रहेगा, उस वक्त तक भारत सच्चे मानी मे गष्ट्र न बन सकेगा। यह भी
जाहिर है कि एक प्रान्त या एक भाषा के बोलनेवाले कौमी भाषा नहीं
बना सकते । कौमी भाषा तो तभी बनेगी, जब सभी प्रान्तो के दिमागदार
लोग उसमे सहयोग देंगे । सम्भव है कि दस-पॉच सात भाषा का कोई
रूप स्थिर न हो, कोई पूरब जाय कोई पश्चिम, लेकिन कुछ दिनों के बाद
तूफान शान्त हो जायगा और जहाँ केवल धूल और अन्धकार और गुबार
था, वहॉ हरा-भरा साफ़ सुथरा मैदान निकल आयेगा । जिनके कलम मे
मुदो को जिलाने और सोतो को जगाने की ताकत है, वे सब वहाँ विचरते
हुए नजर आयेगे । तब हमे टैगोर, मुशी, देसाई और जोशी की कृतियो
से आनन्द और लाभ उठाने के लिए मराठी और बँगला या गुजराती न
सीखनी पडेगी । कौमी भापा के साथ कौमी साहित्य का उदय होगा और
हिन्दुस्तानी भी दूसरी सम्पन्न और सरसब्ज भापात्रो की मजलिस मे
बैठेगी । हमारा साहित्य प्रान्तीय न होकर कौमी हो जायगा। इस अंग्रेजी
प्रभुत्व की यह बरकत है कि आज एडगर वैलेस, गाई बूथबी जैसे लेखको
से हम जितने मानूस है, उसका शताश भी अपने शरत और मुन्शी और
'प्रसाद' की रचनामो से नही । डॉक्टर टैगोर भी अंग्रेजी मे न लिखते,
तो शायद बगाली दायरे के बाहर बहुत कम आदमी उनसे वाकिफ
होते । मगर कितने खेद की बात है कि महात्मा गाधी के सिवा किसी भी
दिमाग ने कौमी भाषा की जरूरत नहीं समझी और उस पर जोर नहीं
दिया। यह काम कौमी सभाओ का है कि वह कौमी भाषा के प्रचार के
लिए इनाम और तमगे दे, उसके लिए विद्यालय खोले, पत्र निकाले
और जनता मे प्रोपेगैंडा करे । राष्ट्र के रूप मे संघटित हुए बगैर हमारा
दुनिया मे जिन्दा रहना मुश्किल है । यकीन के साथ कुछ नहीं कहा जा
सकता कि इस मंजिल पर पहुँचने की शाही सड़क कौन-सी है। मगर
दूसरी कौमो के साथ कौमी भाषा को देखकर सिद्ध होता है कि कौमियत के
लिए लाजिमी चीजो मे भाषा भी है और जिसे एक राष्ट्र बनाना है, उसे
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कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार