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कोमी भाषा के विषय में कुछ विचार


से उसे जा हमदर्दी है, उसमे जोर का धक्का लगता है, उसे कुछ ऐसा खयाल हाने लगता है कि कामी भाषा कोई जरूरी चीज नहीं है। जब उसक नेता, जिनके कदमो के निशान पर वह चलता है, और जो जनता की रुचि बनाते है, कामा भाषा को हकीर समझे-सिवाय इसके कि कभी-कभी श्रीमुख से उसकी तारीफ कर दिया करे-तो जनता से यह उम्मीद करना कि वह कोमी भाषा के मुर्दे को पूजती जायगी, उसे बेवकूफ समझना है । और जनता को आप जो चाहे इल्जाम दे ले, वह बेवकफ नहीं है। अापने समझदारी का जो तराजू अपने दिल मे बना रखा है, उस पर वह चाहे पूरी न उतरे, लेकिन हम दावे से कह सकते है कि कितनी ही बातो मे वह आपसे और हमसे कही ज्यादा समझदार है । कोमी भाषा के प्रचार का एक बड़ा जरिया हमार अखबार है , लेकिन अखबारो की सारी शक्ति नेताअो के भाषणो, व्याख्यानो ओर बयानो के अनुवाद करने मे ही खर्च हो जाती है,और चूँ कि शिक्षित समाज ऐसे अखबार खरीदने पार पढ़ने मे अपनी हतक समझता है, इसलिए ऐसे पत्रो का प्रचार बढने नही पाता और आमदनी कम होने के मबब वे पत्र को मनोरंजक नही बना सकते । वाइसराय या गवर्नर अंग्रेजी मे बोले, हमे कोई एतराज नही । लेकिन अपने ही भाइयो के खयालात तक पहुँचने के लिए हमे अंग्रेजी से अनुवाद करना पड़े, यह हालत नारत जैसे गुलाम देश के सिवा और कही नजर नहीं आ सकता । और जबान की गुलामी ही असली गुलाम है । ऐसे भी देश ससार मे है, जिन्होने हुक्मरो जाति की भाषा को अपना लिया। लेकिन उन जातियो के पास न अपनी तहजीब या सभ्यता थी, और न अपना कोई इतिहास था, न अपनी कोई भापा थी। वे उन बच्चा की तरह थे, जो थोडे ही दिनो मे अपनी मातृभाषा भूल जाते हैं और नयी भाषा मे बलने लगते है। क्या हमारा शिक्षित भारत वैसा ही बालक है ? ऐसा मानने की इच्छा नहीं होती, हालॉ कि लक्षण सब वही है।।

सवाल यह होता है कि जिस क़ौमा भाषा पर इतना जोर दिया