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कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार


हजार-दो हजार साल मे भी उसके जनता मे फैलने का इमकान नहीं । दूसरे वह पढे-लिखो को जनता से अलग किये चली जा रही है । यहाँ तक कि इनमे एक दीवार खिच गयी है । साम्राज्यवादी जाति की भाषा मे कुछ तो उसके घमण्ड और दबदबे का असर होना ही चाहिए । हम अंग्रेजी पढकर अगर अपने को महकूम जाति का अग भूलकर हाकिम जाति का अग समझने लगते है, कुछ वही गरूर, कुछ वही अहम्मन्यता, 'हम चुनीं दीगरे नेस्त' वाला भाव, बहुतो मे कसदन, और थोडे आदमियो मे बेजाने पैदा हो जाता है, तो कोई ताज्जुब नहीं । हिन्दुस्तानी साहबो की अपनी बिरादरी हो गयी है, उनका रहन-सहन, चाल-ढाल, पहनावा, बर्ताव सब साधारण जनता से अलग है, साफ मालूम होता है कि यह कोई नयी उपज है। जो हमारा अंग्रेजी साहब करता है, वही हमारा हिन्दुस्तानी साहब करता है, करने पर मजबूर है। अँग्रेजियत ने उसे हिप्नोटाइज कर दिया है, उसमे बेहद उदारता श्रा गयी है, छूतछात से सोलहो अाना नफरत हो गयी है, वह अंग्रेजी साहब की मेज का जूठन भी खा लेगा और उसे गुरु का प्रसाद समझ लेगा, लेकिन जनता उसकी उदारता मे स्थान नहीं पा सकती, उसे तो वह काला आदमी समझता है । हॉ, जब कभी अंग्रेजी साहबो से उसे ठोकर मिलती है, तो वह दौड़ा हुआ जनता के पास फरियाद करने जाता है, उसी जनता के पास, जिसे वह काला आदमी और अपना भोग्य सम- झता है। अगर अँग्रेजी स्वामी उसे नौकरियों देता जाय, उसे, उसके लडको, पोतो, सबको, तो उसे अपने हिन्दुस्तानी या गुलाम होने का कभी ख्याल भी न आयगा । मुश्किल तो यही है कि वहाँ भी गुञ्जायश नहीं है । ठोकरो पर-ठोकरो मिलती है, तब यह क्लास देश-भक्त बन जाता है और जनता का वकील और नेता बनकर उसका जोर लेकर अंग्रेज साहब का मुकाबिला करना चाहता है । तब उसे ऐसी भाषा की कमी महसूस होती है, जिसके द्वारा वह जनता तक पहुँच सके। कॉग्रेस को जो थोड़ा-बहुत यश मिला, वह जनता को उसी भाषा मे अपील करने