का विकास होता है, हमारी भाषा भी प्रौढ और पुष्ट होती जाती है।
आदि मे ज' लोग इशारो मे बात करने थे, फिर अक्षरो मे अपने भाव
प्रकट करने लगे, वही लोग फिलासफी लिखते और शायरी करते हैं,
और जब जमाना बदल जाता है अर हम उस जगह से निकलकर
दुनिया के दूसरे हिस्सो मे आबाद हो जाते हैं, हमारा रग-रूप भी बदल
जाता है । फिर भी भापा सदियो तक हमारा साथ देती रहती है और
जितने लोग हम जबान है, उनमे एक अपनापन, एक आत्मीयता, एक
निकटता का भाव जगाती रहती है। मनुष्य मे मेल मिलाव के जितने
साधन है, उनमे सबसे मजबूत, असर डालनेवाला रिश्ता.भाषा का है।
राजनीतिक, व्यापारिक या धार्मिक नाते जल्द या देर मे मजोर पड़
सकते है और अक्सर टूट जाते है। लेकिन भाषा का रिश्ता समय की
और दूसरी बिखेरनेवाली शक्तियो की परवा नही करता, और एक तरह
से अमर हो जाता है।
लेकिन आदि मे मनुष्यों के जैसे छोटे छोटे समूह होते हैं, वैसी ही
छोटी-छोटी भाषाएँ भी होती है। अगर गौर से देखिये, तो बीस-पचीस कोस
के अन्दर ही भाषाओ मे कुछ-न-कुछ फर्क हो जाता है। कानपुर और
झॉसी की सरहदे मिली हुई हैं। केवल एक नदी का अन्तर है; लेकिन
नदी की उत्तर तरफ कानपुर मे जो भाषा बोली जाती है, उसमे और
नदी की दक्षिण तरफ की भाषा मे साफ-साफ फर्क नजर आता है। सिर्फ
प्रयाग मे कम-से-कम दस तरह की भापाएँ बोली जाती है । लेकिन जैसे-
जैसे सभ्यता का विकास होता जाता है, यह स्थानीय भाषाएँ किसी सूबे
की भाषा मे जा मिलती हैं और सूबे की भाषा एक सार्वदेशिक भाषा का
अङ्ग बन जाती है । हिन्दी ही मे ब्रजभाषा, बुन्देलखण्डी, अवधी, मैथिल,
भोजपुरी आदि भिन्न-भिन्न शाखाएँ हैं, लेकिन जैसे छोटी-छोटी धाराओं
के मिल जाने से एक बडा दरिया बन जाता है, जिसमें मिलकर नदियाँ
अपने को खो देती है, उसी तरह ये सभी प्रान्तीय भाषाएँ हिन्दी की मात-
हत हो गयी हैं और आज उत्तर भारत का एक देहाती भी हिन्दी समझता