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साहित्य का उद्देश्य


पैदा होती है । अपनी अनुभूतियों को वह जिस क्रमानुपात में व्यक्त करता है, वही उसकी कला-कुशलता का रहस्य है । पर शायद इस विशेषता पर जोर देने की जरूरत इसलिए पड़ी कि प्रगति या उन्नति से प्रत्येक लेखक या ग्रन्थकार एक ही अर्थ नहीं ग्रहण करता । जिन अवस्थाओं को एक समुदाय उन्नति समझ सकता है, दूसरा समुदाय असन्दिग्ध अवनति मान सकता है, इसलिए कि यह साहित्यकार अपनी कला को किसी उद्देश्य के अधीन नहीं करना चाहता। उसके विचारो में कला केवल मनोभावों के व्यक्तीकरण का नाम है, चाहे उन भावों से व्यक्ति या समाज पर कैसा ही असर क्यों न पड़े।

उन्नति से हमारा तात्पर्य उस स्थिति से है, जिससे हममें दृढ़ता और कर्म-शक्ति उत्पन्न हो, जिससे हमें अपनी दुःखावस्था की अनुभूति हो, हम देखें कि किन अन्तर्बाह्य कारणों से हम इस निर्जीवता और ह्रास की अवस्था को पहुँच गये, और उन्हें दूर करने की कोशिश करे।

हमारे लिए कविता के वे भाव निरर्थक हैं, जिनसे संसार की नश्वरता का आधिपत्य हमारे हृदय पर और दृढ हो जाय, जिनसे हमारे हृदयों मे नैराश्य छा जाय । वे प्रेम-कहानियों, जिनसे हमारे मासिक-पत्रों के पृष्ठ भरे रहते हैं, हमारे लिए अर्थहीन है, अगर वे हममें हरकत और गरमी नहीं पैदा करतीं। अगर हमने दो नवयुवको की प्रेम-कहानी कह डाली, पर उससे हमारे सौन्दर्य-प्रेम पर कोई असर न पड़ा और पड़ा भी तो केवल इतना ही कि हम उनकी विरह व्यथा पर रोये, तो इसमे हममे कौन-सी मानसिक या रुचि सम्बन्धी गति पैदा हुई ? इन बातों से किसी जमाने में हमें भावावेश हो जाता रहा हो तो हो जाता रहा हो पर आज के लिए वे बेकार हैं । इस भावोत्तेजक कला का अब जमाना नहीं रहा । अब तो हमे उस कला की आवश्यकता है, जिसमें कर्म का सन्देश हो । अब तो हजरते इकबाल के साथ हम भी कहते हैं-

रम्जे हयात जोई जुज़दर तपिश नयाबी,
दरकुलजुम आरमीदन नगस्त आबे जूरा ।