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राष्ट्रभाषा हिन्दी और उनकी समस्याएॅ


व्यापक रहेगी । अगर हिन्दी भाषा प्रान्तीय रहना चाहती है और केवल हिन्दुओ की भाषा रहना चाहती है, तब तो वह शुद्ध बनायी जा सकती है। उसका अङ्गभङ्ग करके उसका कायापलट करना होगा। प्रौढ से वह फिर शिशु बनेगी, यह असम्भव है, हास्यास्पद है। हमारे देखते-देखते सैकड़ो विदेशी शब्द भाषा मे आ घुसे, हम उन्हे रोक नही सकते । उनका अाक्रमण रोकने की चेष्टा ही व्यर्थ है। वह भाषा के विकास मे बाधक होगी । वृक्षो को सीधा और सुडौल बनाने के लिए पौधों को एक थूनी का सहारा दिया जाता है। श्राप विद्वानो का ऐसा नियन्त्रण रख सकते है कि अश्लील, कुरुचिपूर्ण, कर्णकटु, भहे शब्द व्यवहार मे न पा सकें; पर यह नियंत्रण केवल पुन्तको पर हो सकता है। बोल-चाल पर किसी प्रकार का नियन्त्रण रखना मुश्किल होगा। मगर विद्वानो का भी अजीब दिमाग है। प्रयाग में विद्वानो और पण्डितो की सभा 'हिन्दुस्तानी एकेडमी' मे तिमाही, सेहमाही और त्रैमासिक शब्दो पर बरसो से मुबाहमा हो रहा है और अभी तक फैसला नही हुआ । उर्दू के हामी 'सेहमाही की ओर है, हिन्दी के हामी 'त्रमासिक' की ओर, वेचारा 'तिमाही' जो सबसे सरल. यासानी से बोला और समझा जानेवाला शब्द है, उसका दोनो ही अोर से बहिष्कार हो रहा है।भाषा सुन्दरी को कोठरी मे बन्द करके आप उसका सतीत्व तो बचा सकते है, लेकिन उसके जीवन का मूल्य देकर । उसकी आत्मा स्वय इतनी बलवान बनाइये, कि वह अपने सतीत्व और स्वास्थ्य दोनो ही की रक्षा कर सके । बेशक हमे ऐसे ग्रामीण शब्दो को दूर रखना होगा, जो किसी स्वास इलाके मे बोले जाते है। हमाग आदर्श तो यह होना चाहिए, कि हमारी भापा अधिक से अधिक आदमी समझ सकें। अगर इस आदर्श को हम अपने सामने रखे,तो लिखते समय भी हम शब्द-चातुरी के मोह मे न पडेगे । यह गलत है, कि फारसी शब्दो से भाषा कठिन हो जाती है । शुद्ध हिन्दी के ऐसे पदों के उदाहरण दिये जा सकते हैं जिनका अर्थ निकालना पण्डितो के लिए भी लोहे