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साहित्य का उदेश्य

को परे फेंककर अधिक अच्छे मनुष्य बने । इसीलिए हम साधु-फकीरों की खोज में रहते है, पूजा-पाठ करते हैं, बड़े-बूढ़ो के पास बैठते हैं, विद्वानों के व्याख्यान सुनते हैं और साहित्य का अध्ययन करते हैं।

और हमारी सारी कमजोरियों की जिम्मेदारी हमारी कुरुचि और प्रेम-भाव से वञ्चित होने पर है। जहाँ सच्चा सौन्दर्य-प्रेम है, जहाँ प्रेम की विस्तृति है, वहाँ कमजोरियों कहाँ रह सकती है ? प्रेम ही तो आध्यात्मिक भोजन है और सारी कमजोरियॉ इसी भोजन के न मिलने, अथवा दूषित भोजन के मिलने से पैदा होती हैं। कलाकार हममें सौन्दर्य की अनुभूति उत्पन्न करता है और प्रेम की उष्णता। उसका एक वाक्य, एक शब्द, एक संकेत, इस तरह हमारे अन्दर जा बैठता है कि हमारा अन्तःकरण प्रकाशित हो जाता है । पर जब तक कलाकार खुद सौन्दर्य-प्रेम से छककर मस्त न हो और उसकी आत्मा स्वयं इस ज्योति से प्रकाशित न हो, वह हमें यह प्रकाश क्योकर दे सकता है ?

प्रश्न यह है कि सौन्दर्य है क्या वस्तु ? प्रकटतः यह प्रश्न निरर्थक सा मालूम होता है क्योंकि सौन्दर्य के विषय मे हमारे मन मे कोई शंका-सन्देह नहीं। हमने सूरज का उगना और डूबना देखा है, ऊषा और सन्ध्या की लालिमा देखी है, सुन्दर सुगन्धि-भरे फूल देखे हैं, मीठी बोलियों बोलनेवाली चिड़ियाँ देखी हैं, कल-कल निनादिनी नदियों देखी हैं, नाचते हुए झरने देखे है— यही सौन्दर्य है।

इन दृश्यो को देखकर हमारा अन्तःकरण क्यो खिल उठता है ? इसलिए कि इनमे रंग या ध्वनि का सामंजस्य है। बाजों का स्वर- साम्य अथवा मेल ही संगीत की मोहकता का कारण है । हमारी रचना ही तत्त्वो के समानुपात में सयोग से हुई है। इसलिए हमारी आत्मा सदा उसी साम्य तथा सामंजस्य की खोज मे रहती है । साहित्य कलाकार के आध्यात्मिक सामंजस्य का व्यक्त रूप है और सामंजस्य सौन्दर्य की सृष्टि करता है, नाश नहीं । वह हममे वफादारी, सचाई, सहानुभूति, न्यायप्रियता और ममता के भावो की पुष्टि करता है। जहाँ ये भाव