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रोमे रोलाँ की कला


लिखता कि उससे पाठक का मनोरजन हो । उसकी कला का उद्देश्य केवल मनोरहस्य को समझाना है। जिस तरह वह स्वयं मनुष्यो को देखता है, मनुष्यो को समझाता है । वह अाशावादी है, मनुष्य के भविष्य मे उसे अटल विश्वास है। ससार की सारी विपत्तियो का मूल यह है कि मनुष्य मनुष्य को समझता नही, या समझने की चेष्टा नही करता। इसीलिए द्वेष, विरोध और वैमनस्य है। वह यथार्थवादी अवश्य है; लेकिन उसका यथार्थवाद गन्दी नालियो मे नहीं रहता । उसकी उदार आत्मा किसी वस्तु को उसके कलुषित रूप मे नही देखती । वह किसी का उपहास नही करता । किसी का मज़ाक नहीं उडाता, किसी को हेय नहीं समझता । मानव हृदय उसके लिए समझने की वस्तु है । यह बात नहीं है कि उसे अन्याय देखकर क्रोध नही अाता। उसने एक जगह लिखा है-मानव समाज की बुराइयो को दूर करने की चेष्टा प्राणीमात्र का कर्तव्य है । जिसे अन्याय को देखकर क्रोध नहीं आता, वह यही नहीं कि कन्नाकार नहीं है बल्कि वह मनुष्य भी नहीं है।

लेकिन अन्याय से सग्राम करने की उसकी नीति कुछ और है । वह मनुष्य को समझने की चेष्टा करता है, उस अन्याय भावना के उद्गम तक पहुंचना चाहता है, और इस तरह मानव-अात्मा मे प्रवाह लेकर उसकी सकीर्णतारो को दूर करके समन्वय करना ही उसकी कला है।

स्वातः सुखाय वाली मनोवृत्ति कला के विकास के लिए उत्तम समझी जाती है । हम प्रायः कहा करते है, कि अमुक व्यक्ति जो कुछ लिखता है, शोकिया लिखता है । वह अपनी क्ला पर अपनी जीविका का भार नही डालता । जिस कला पर जीविका का भार हो, वह इसलिए दूषित समझी जाती है कि कलाकार को जन-रुचि के पीछे चलना पड़ता है। मन और मस्तिष्क पर जोर डालकर कुछ लिखा तो क्या लिखा। कला तो वही है, जो स्वच्छन्द हो । रोमे रोलॉ का मत इसके विरुद्ध है । वह कहता है, जिस कला पर जीविका का भार नही, वह केवल