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समकालीन अंग्रेजी ड्रामा


भरी हुई है । अग्रेजी समाज की कमजोरियो और कृत्रिमताओ का उसने ऐसा पर्दा फाश किया है कि अग्रेजो जैसा स्वार्थान्ध राष्ट्र भी कुनमुना उठा है। सदियो की प्रभुता ने अग्रेज जाति मे जो अहमन्यता, जो बनावटी शिष्टता, जो मक्कारी और ऐयारी, जो नीच स्वार्थपरता ठूस दी है, वही शा के ड्रामो के विषय है । उसकी अमीरजादियो को देखिए, या धर्माचार्यों को, या राष्ट्र के उच्च पदाधिकारियो को, सब नकली जीवन का स्वाग भरे नजर आएँगे । उनका बहुरूप उतार कर उनको नग्न रूप मे खडा कर देना शा का काम है। समाज का कोई अग उसके कलम कुठार से नहीं बचा । वह आत्मा की तह मे प्रतिष्ठित रूढियों की भी परवाह नहीं करता । वह सत्य का उपामक है और असत्य को किसी भी रूप मे नहीं देख सकता।

गाल्जवर्दी भी उपन्यासकार और कवि होते हुए भी नाटककार के रूप मे अधिक सफल हुअा है। उसके ड्रामों में समाजवाद के सिद्धान्तो का ऐसा कलापूर्ण उपयोग किया गया है कि सामाजिक विषमता का चित्र ऑखों के सामने आ जाता है, और पाठक उनसे बिना असर लिये नहीं रह सकता। उसके तीन नाटकों के अनुवाद हिन्दी मे हो चुके है, जिन्हे प्रयाग की हिन्दुस्तानी एकाडेमी ने प्रकाशित किया है । 'चादी की डिबिया' में दिखाया गया है कि धन के बल पर न्याय की कितनी हत्या हो सकती है । 'न्याय' मे उसने एक ऐसे चरित्र की रचना की है, जो सहानुभूति और उदारता के भावो से प्रेरित होकर गबन करता है और अपना कर्मफल भोगने के बाद जब वह जेल से निकलता है, तब समाज उसे ठोकरे मारता है और अन्त मे वह विवश होकर आत्म- हत्या कर लेता है । 'हडताल' मे उसने मालिकों और मजदूरो की मना- वृत्तियो का बड़ा ही मर्मस्पर्शी चित्र खींचा है । उसने और भी कई ड्रामे लिखे है, पर ये तीनो रचनाएँ उसकी कीर्ति को अमर बनाने के लिए काफी हैं । मेसफील्ड, वार्फर, सिंज, सर जेम्स बैरी, पेटर आदि भी सफल नाटककार हैं । और सब के रंग अपनी अपनी विशेषताएँ लिये