लेखक देखता है कि अमुक की रचना नग्नता और निर्लज्जता के
कारण धड़ाधड बिक रही है, तो वह कलम हाथ मे लेकर बैठता है और
उससे भी दस कदम आगे जा पहुँचता है । और इन पुस्तको की समाज
मे खूब अालोचनाएँ होती है, उनकी निर्भीक सत्यवादिता के खूब ढोल
पीटे जाते है । इस प्रवृत्ति को यथार्थवाद का नाम दे दिया जाता है,
और यथार्थवाद की आड़ मे आप व्यभिचार की, निर्लज्जता की, चाहे
जितनी मीमासा कीजिए, कोई नहीं बोल सकता। एक महिला कलम
लेकर बैठती है और अपने कुत्सित प्रेम-रहस्यो का कच्चा चिट्ठा लिख
जाती हैं । समाज मे उनकी रचना की धूम मच जाती है, दूसरे महोदय
अपनी ऐयाशियो की झूठी सच्ची कहानी लिखकर समाज मे हलचल
पैदा कर देते हैं । पुस्तको को अधिक से अधिक लाभप्रद बनाने के लिए,
सम्भव है, अपनी आत्म-चर्चा को खूब बढ़ा-बढा कर बयान किया जाता
हो । कामुकता का ऐसा नगा नाच शायद किसी युग में न हुआ हो।
दुकानो पर रूपवती युवतियाँ बैठाई जाती है । इसलिए कि ग्राहको की
कामुकता को उत्तेजित करके एक पैसे की चीज के दो पैसे वसूल कर
लिये जायें। ये युवतियों मानो वह चारा है, जिसे काटे में लगाकर
मछलियो को फसाया जाता है । जब सारे कुएँ मे ही भग पड़ गई है तो
कला और साहित्य क्यों अछूते बच जाते ? मगर यह सब उस सामाजिक
व्यवस्था का प्रसाद है, जो इस वक्त ससार मे फैली है। और वह
व्यवस्था है-'धन का कहीं जरूरत से ज्यादा और कहीं जरूरत से कम
होना । जिनके पास जरूरत से ज्यादा है, वह मानो समाज के देवता हैं
और जिनके पास जरूरत से कम है, वह हर मुमकिन तरीको से धनवानों
को खुश करना चाहते हैं। और धन की वृद्धि सदैव विषय विलास की
ओर जाती है । इसीलिए रूप के बाजार सजाए जाते हैं, इसीलिए नम
चित्र बनाए जाते हैं इसीलिए साहित्य कामुकता-प्रधान हो जाता है।
साहित्य के इस नए पतन। का एक कारण यह भी हो सकता है कि
आज कल पश्चिमी समाज मे फैशन की गुलामी और भोग लालसा के
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साहित्य की नई प्रवृति