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साहित्य की नई प्रवृति


रख देने की गुदगुदी पैदा करती है, जिसके गुप्त और अस्पष्ट रहने में ही कला का आनन्द है।

और यह प्रवृत्ति और कुछ नहीं, केवल समाज की वर्तमान व्यवस्था का रूप मात्र है । जब नारी को इसका निराशाजनक अाभास होता है कि उसके पास रूप के आकर्षण के सिवा और कुछ नहीं रहा, तो वह नाना प्रकार से उसी रूप को संवार कर नेत्रो को आकर्षित करना चाहती है । उसमे वह सौन्दर्य नही रहा, जो काजल और पाउडर की- परवाह न करके, केवल श्राखो को खुश करने मे ही अपना सार न समझकर अन्तस्तल की गहराइयों से अपना प्रकाश फैलाता है। वही व्यापार बुद्धि जो आज गली गली, कोने कोने में अपना जौहर दिखा रही है, साहित्य अोर कला के क्षेत्र मे भी अपना आधिपत्य जमा रही है। आप जिधर जाइए आपको दीवारो पर, तख्तियो पर व्यापारियो के बड़े-बड़े भड़कीले पोस्टर नजर आयेगे । समाचार-पत्रो मे भी तीन चौथाई स्थान केवल विज्ञापनो से भरा रहता है। स्वामी को अच्छी सामग्री देने की उतनी चिन्ता नहीं रहती, जितनी नफा देने वाले विज्ञापनहासिल करने की । उसके कनवेसर लेखको के पास लेख के लिए नही जाते । इसके लिए तो एक कार्ड काफी है । मगर विज्ञापन-दाताअो की सेवा मे वे बराबर अपने कनवेसर भेजता है, उनकी खुशामद करता है, और उसी देवता को प्रसन्न करने मे अपना उद्धार पाता है । कितने ही अच्छे अच्छे पत्र तो केवल विज्ञापन के लिए ही निकलते हैं, लेख तो केवल गौण रूप से इसलिए दे दिये जाते हैं कि साहित्य के रसिकों को उन विज्ञापनो को पढ़ने के लिए प्रलोभन दे सके । व्यापार ने कला को एक तरह से खरीद लिया है। व्यापार के युग मे जिस चीज़ का सबसे ज्यादा महत्व होता है, वह धन है । जिसके अन्दर जो शक्ति है, चाहे वह देह की हो या मन की, या रूप की या बुद्धि की, वह उसे धन-देवता के चरणों पर ही चढ़ा देता है । हमारा साहित्य भी, जो कला का ही एक अंग है उसी व्यापार-बुद्धि का शिकार हो गया है । हम