साधु निकल ही आते है, जो परले सिरे के लुच्चे कहे जा सकते हैं।
साधु हम ज्ञान प्राप्ति या मोक्ष या जन-सेवा के ही विचार से होते है।
इस गई गुजरी दशा मे भी ऐसे साधु मौजूद है, जिन्हे इम महात्मा कह
सकते है। वेश्याश्रो के मूल मे दुर्वासना, अर्थ-लोलुपता, कामुकता और
कपट होता है । इससे शायद नागर जी को भी इन्कार न हो।
सिनेमा की क्षमता से मुझे इनकार नहीं। अच्छे विचारो और आदशों के प्रचार मे सिनेमा से बढकर कोई दूसरी शक्ति नहीं है, मगर जैसा नागर जी खुद स्वीकार करते है, वह कुपात्रो के हाथ मे है और वह लोग भी इस जिम्मेदारी से बरी नही हो सकते, जो उसे बर्दाश्त करते है, अर्थात् जनता । मुझे इसके स्वीकार करने मे कोई आपत्ति नहीं। यही तो मै कहना चाहता हूँ । सिनेमा जिनके हाथ मे है, उन्हे आप कुपात्र कहे, मै तो उन्हे उसी तरह व्यापारी समझता हूँ, जैसे कोई दूसरा व्यापारी। और व्यापारी का काम जन-रुचि का पथ-प्रदर्शन करना नही, धन कमाना है। वह वही चीज जनता के सामने रखता है,जिसमे उसे अधिक से अधिक धन मिले ।एक फिल्म बनाने मे पचास हजार से एक लाख तक बल्कि इससे भी ज्यादा खर्च हो जाते है । व्यापारी इतना बड़ा खतरा नही ले सकता। गरीब का दीवाला निकल जाय । साहित्यकार का मुख्य उद्देश्य धन नहीं होता, नाम चाहे हो । हमारे खयाल मे साहित्य का मुख्य उद्देश्य जीवन को बल और स्वास्थ्य प्रदान करना है। अन्य सभी उद्देश्य इसके नीचे आ जाते है। हजारो साहित्यकार केवल इसी भावना से अपना जीवन तक साहित्य पर कुर्बान कर देते है। उन्हे घेला भी इससे नहीं मिलता । मगर ऐसा शायद ही कोई प्रोड्यूसर अवतरित हुअा हो, और शायद ही हो, जिसने इस ऊँची भावना से फिल्म बनाया हो।
आप फरमाते हैं, सिनेमा मे जाने वाले साहित्यिकों मे ऐसा कौन
था, जिसका मुख्य उद्देश्य सिनेमा को अपने रग मे रगना रहा हो ? हम
गोरों से कह सकते हैं, कोई भी नहीं । वहाँ का जलवायु ही ऐसा है कि
बड़ा आदर्शवादी भी जाय, तो नमक की खान मे नमक बन कर रह