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साहित्य का उद्देश्य


पर फतवा दे देता है कि हिन्दी मे कुछ नहीं है, निरा कूड़ा भरा है । क्या आप इस चीज को ठीक समझते है ?

अब दो एक शब्द आपके मादक या मतवालावाद पर भी । पहली बात तो यह कि केवल यूटिलिटेरियन एन्ड्स की दृष्टि से लिखा गया साहित्य ही साहित्य है, ऐसा कहना ठीक नही ! ऐसी रचना करने के लिए साहित्यिक से अधिक प्रोपेगेण्डिस्ट होने की जरूरत है। इतना ही नही । इन एन्डस को पूरा करने के लिए अन्य साधन मौजूद है, जो साहित्य से कही अधिक प्रभावशाली है । तब फिर, साहित्य के स्थान पर उन साधनो को प्रेफरेन्स क्यो न दिया जाये ? इसे भी छोड़िए। यूटिलिटेरियन एन्ड्स को अपनाने मे कोई हर्ज नहीं। उन्हे अपनाना चाहिए ही। लेकिन क्या सचमुच मे सेक्स-अपील उतना बड़ा हौवा है, जितना कि उसे बना दिया गया है ? क्या सेक्स अपील से अपने आपको, अपनी रचनाओ को, पाक रखा जा सकता है ? पाक रखना क्या स्वाभाविक और सजीव होगा ? अपवाद के लिए गुजाइश छोड़कर मैं आपसे पूछना चाहूँगा कि आप किसी भी ऐसी रचना का नाम बताएँ, जिसमें सेक्स अपील न हो । सेक्स अपील बुरी चीज नहीं है। वह तो होनी ही चाहिए । लोहा तो हमे उस मनोवृत्ति से लेना है, जो सेक्स अपील और सेक्स परवर्शन मे कोई भेद नहीं समझती।

अब सिनेमा-मुधार की समस्या पर भी । यह समझना कि जिनके हाथ मे सिनेमा की बागडोर है, वे इनिशिएटिव ले-भारी भूल होगी। यह काम प्रेस और प्लेटफार्म का है, इससे भी बढ़कर उन नवयुवको का है, जो सिनेमा मे दिलचस्पी रखते है। चूंकि मै प्रेस से सम्बन्धित हूँ और फिलहाल एक सिनेमा-पत्रिका का सम्पादन कर रहा हूँ इसलिए मैंने इस दिशा मे कदम उठाने का प्रयत्न किया । लेखकों तथा अन्य साहित्यिकों को अप्रोच किया । कुछ ने कहा कि सिनेमा सुधार की जिम्मेदारी लेखको पर नहीं। अपने लेख पर दिये गये 'लेखक' के सम्पादक का नोट ही देखिए । कुछ ने इसे असम्भव-सा बताकर छोड़ दिया। सिनेमा-सुधार