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फिल्म और साहित्य


साहित्यिक भी जो कि एक तरह से कम्पनी के सर्वेसर्वा है, अपने फिल्म मे दो सौ लड़कियों का नाम रखने से बाज न आये, जो कि बज़िद थे, कि तालाब से पानी भरने वाले सीन मे हीरोइन अण्डरवियर न पहने, हीरो आये, उससे छेड़खानी करे और उसका घड़ा छीनकर उस पर डाल दे । बदन पर अण्डरवियर नहीं, वस्त्र भीगे, बदन से चिपके, और नग्नता का प्रदर्शन हो। यह सूझ उन्हीं साहित्यिको मे से एक की है, जिनके कि आपने नाम गिनाये हैं। ..."लेकिन मुझे कहना चाहिए कि इसमे साहित्यिक का दोष जरा भी नहीं है । .... और ऐसी ब्लैक- शीप मेन्टैलिटी साहित्यिक क्या और सिनेमा क्या, सभी जगह मिल जायेगी।

आपने अपने लेख में होली, कजली और बारहमासे, की पुस्तकों का जिक्र किया है । इन चीजो को साहित्य नहीं कहा जाता या साहित्यिक इन्हे रिकग्नाइज नहीं करते, यह ठीक है। लेकिन उनका अस्तित्व है और जिस प्रेरणा या उमंग को लेकर अन्य कलाओं का सृजन होता है उन्ही को लेकर यह होली, कजली और बारहमासे भी आये है । लेकिन आपका उन्हे अपने से अलग रखना भी स्वाभाविक है। यूटिलिटी के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से। इसी तरह क्या आपने कभी यह जानने का कष्ट किया है कि सिनेमा- जगत में क्लासेज एड मासेज-दोनों की ही अोर से कौन-कौन सी कम्पनियों, कौन-कौन से डाइरेक्टरों और कौन-कौन से फिल्मो को रिक- ग्नाइज किया जाता है ? भारत की मानी हुई या सर्वश्रेष्ठ कम्पनियों कौन सी हैं, यह पूछने पर आपको उत्तर मिलेगा-प्रभात, न्यू थियेटर्स और रणजीत । डाइरेक्टरों की गणना मे शान्ताराम, देवकी बोस और चन्दू- लाल शाह के नाम सुनाई देगे । तब फिर आपका, या किसी भी व्यक्ति का, जो भी फिल्म या कम्पनी सामने आ जाये उसी से सिनेमा पर एक स्लैशिगफ़तवा देना कहाँ तक सगत है, यह आपही सोचें । यह तो वही बात हुई कि कोई आदमी किसी लाइब्रेरी मे जाता है । जिस पुस्तक पर हाथ पड़ता है, उसे उठा लेता है । और फिर उसी के आधार

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