अंक अापको भेजे भी गए थे।पता नहीं अापने उन्हे देखा कि नहीं।
अस्तु।
आपने सिनेमा के सम्बन्ध मे जो कुछ लिखा है, वह ठीक है । साहित्य को जो स्थान दिया है, उससे भी किसी का मतभेद नहीं हो सकता। निश्चय ही सिनेमा ताड़ी और साहित्य दूध है; पर इस चीज को जेनेरलाइज करना ठीक न होगा। सिनेमा के लिए भी और साहित्य के लिए भी। साहित्य भी इसी ताडीपन से अछूता नहीं है । सिनेमा को मात करने वाले उदाहरण भी उसमे मिल जायेंगे-एक नहीं अनेक । और ऐसे व्यक्तियो के जिनको कि साहित्यिक ससार ने रिकग्नाइज किया है। और तो और, पाठ्यकोर्स तक मे जिनकी पुस्तकें हैं । अपने समर्थन मे महात्मा गान्वी के वे वाक्य उद्धत करने होगे क्या, जो कि उन्होंने इन्दौर साहित्य सम्मेलन के सभापति की हैसियत से कहे है ? लेकिन प्रत्यक्ष किम् प्रमाणम् । यही बात सिनेमा के साथ है । सिनेमा के साथ तो एक और भी गड़बड़ है। वह यह कि बदनाम है । आपके ही शब्दों में भिखमगे साधु वेश्याओं से अच्छे न होते हुए भी श्रद्धा के पात्र हैं। श्रद्धा के पात्र है, इसलिए टालरेबुल है या उतने विरोध के पात्र नहीं है, जितने कि वेश्याएँ । इसी तर्क शैली को लेकर आप सिद्ध करते हैं कि सिनेमा ताड़ी है और साहित्य दूध | ताडी ताड़ी है और दूध दूध । आपने इन दोनो के दर्मियान एक वेल मार्ड एन्ड वेल डिफाइन्ड लाइन आप डिफरेन्स खीच दी है।
मेरा आपसे यहाँ सैद्धान्तिक मतभेद है । मेरा ख्याल है कि यह विचारधारा ही गलत है, जो इस तरह की तर्क शैली को लेकर चलती है । कभी जमाना था, जब इस तर्क शैली का जोर था, सराहना थी पर अब नहीं है । इस चीज को हमे उखाड़ फेकना ही होगा।
एक जगह आप कहते है कि साहित्य का काम जनता के पीछे
चलना नहीं, उसका पथ-प्रदर्शक बनना है । आगे चलकर आप साधु
और वेश्याओं की मिसाल देते हैं। साधु वेश्याओ से अच्छे न होते हुए