है वह लेखका मे मुश्किल से मिलेगी; इसलिए वह लेखकों से केवल
उतना ही काम लेता है जितना वह बिना किसी हानि के ले सकता
है। अमेरिका और अन्य देशो मे भी साहित्य और सिनेमा मे साम-
न्जस्य नहीं हो सका और न शायद ही हो सकता है । साहित्य जन-रुचि
का पथ-प्रदर्शक होता है, उसका अनुगामी नहीं। सिनेमा जन-रुचि के
पीछे चलता है, जनता जो कुछ माँगे वही देता है । साहित्य हमारी
सुन्दर भावना को स्पर्श करके हमे आनन्द प्रदान करता है । सिनेमा
हमारी कुत्सित भावनाशो को स्पर्श करके हमे मतवाला बनाता है और
इसकी दवा प्रोड्यूसर के पास नहीं । जब तक एक चीज की मॉग है,
वह बाजार मे आएगी । कोई उसे रोक नहीं सकता। अभी वह जमाना
बहुत दूर है जब सिनेमा और साहित्य का एक रूप होगा।
लोक-रुचि जब इतनी परिष्कृत हो जायगी कि वह नीचे ले पाने वाली
चीजो से घृणा करेगी, तभी सिनेमा मे साहित्य की सुरुचि दिखाई
पड़ सकती है।
हिन्दी के कई साहित्यकारों ने सिनेमा पर निशाने लगाये लेकिन शायद ही किसी ने मछली बेध पाई हो । फिर गले मे जयमाल कैसे पड़ता? आज भी पडित नारायण प्रसाद बेताब, मुन्शी गौरीशकर लाल अख्तर, श्री हरिकृष्ण प्रेमी, मि० जमना प्रसाद काश्यप, मि० चन्द्रिका प्रसाद श्रीवास्तव, डाक्टर धनीराम प्रेम, सेठ गोविन्द दास, पडित द्वारका प्रसाद जी मिश्र आदि सिनेमा की उपासना करने में लगे हुए है । देखा चाहिए सिनेमा इन्हे बदल देता है या ये सिनेमा की काया-पलट कर
श्री नरोत्तम प्रसाद जी की चिट्ठी
श्रद्धेय प्रेमचन्द जी,
'लेखक' में आपका लेख 'फिल्म और साहित्य' पढा । इस चीज को
लेकर रगभूमि मे अच्छी खासी कन्ट्रोवर्सी चल चुकी है। रगभूमि के वे