क्या हिन्दी और क्या उर्दू-कविता में दोनो की एक ही हालत थी। उस समय साहित्य और काव्य के विषय में जो लोक-रुचि थी, उसके प्रभाव से अलिप्त रहना सहज न था। सराहना और कद्रदानी की हवस तो हर एक को होती है । कवियों के लिए उनकी रचना ही जीविका का साधन थी । और कविता की कद्रदानी रईसों और अमीरों के सिवा और कौन कर सकता है ? हमारे कवियो को साधारण जीवन का सामना करने और उसकी सचाइयों से प्रभावित होने के या तो अवसर ही न थे, या हर छोटे-बड़े पर कुछ ऐसी मानसिक गिरावट छायी हुई थी कि मानसिक और बौद्धिक जीवन रह ही न गया था ।
हम इसका दोष उस समय के साहित्यकारों पर ही नहीं रख सकतें। साहित्य अपने काल का प्रतिबिम्ब होता है । जो भाव और विचार लोगों के हृदयो को स्पन्दित करते हैं, वही साहित्य पर भी अपनी छाया डालते हैं । ऐसे पतन के काल में लोग या तो आशिकी करते हैं, या अध्यात्म और वैराग्य में मन रमाते हैं । जब साहित्य पर संसार की नश्वरता का रंग चढ़ा हो, और उसका एक एक शब्द नैराश्य में डूबा हो, समय की प्रतिकूलता के रोने से भरा हो और शृङ्गारिक भावों का प्रतिबिम्ब बन गया हो, तो समझ लीजिये कि जाति जड़ता और हास के पंजे मे फंँस चुकी है और उसमें उद्योग तथा संघर्ष का बल बाकी नही रहा ; उसने ऊँचे लक्ष्यों की ओर से ऑखें बन्द कर ली है और उसमें से दुनिया को देखने- समझने की शक्ति लुप्त हो गयी है।
परन्तु हमारी साहित्यिक रुचि बड़ी तेजी से बदल रही है। अब साहित्य केवल मन-बहलाब की चीज नहीं है, मनोरञ्जन के सिवा उसका और भी कुछ उद्देश्य है। अब वह केवल नायक-नायिका के संयोग- वियोग की कहानी नहीं सुनाता; किन्तु जीवन की समस्याओं पर भी विचार करता है, और उन्हे हल करता है । अब वह स्फूर्ति या प्रेरणा के लिए