है, और अगर किसी भारतीय साहित्यकार को कुछ आदर मिला है तो उसमे भी पश्चिमवालो की श्रेष्ठता का भाव छिपा हुया है, मानो उन्होने हमारे ऊपर कोई एहसान किया है। हमारे यहाँ ऐसे लोगो की कमी नही है, जिन्हे यूरप की अच्छी बाते भी बुरी लगती हैं और अपनी बुरी बात भी अच्छी । अगर हम मे अात्म-विश्वास की कमी अपना आदर नहीं करने देती, तो जातीय अभिमान की अधिकता भी हमे असलियत तक नहीं पहुँचने देती । कम से कम साहित्य के विषय मे तो हमे निष्पक्ष होकर खोटे खरो को परखना चाहिए। यूरप और अमे- रिका मे ऐसे-ऐसे साहित्यकार और कवि हो गुजरे हैं और आज भी हैं, जिनके सामने हमारा मस्तक आप से अाप झुक जाता है । लेकिन इसका यह अर्थ नही है कि वहाँ सब कुछ सोना ही सोना है, पीतल है ही नहीं। कहानिया मे तो हिन्दी उनसे बहुत पीछे हर्गिज नही है, चाहे वे इसे माने या न माने । प्रसाद, कौशिक या जैनेन्द्र की रचनाओ के विषय मे तो हमे कुछ कहना नहीं है । उनकी चुनी हुई चीजे किसी भी विदेशी साहित्यकार को रचनात्रा से टक्कर ले सकती हैं। हम आज उन गल्पकारो का कुछ जिक्र करना चाहते है, जो हिन्दी-गल्य-कला के विकास मे श्रेय के साथ अपना पार्ट अदा कर रहे हैं, यद्यपि साहित्य समाज मे उनका उतना आदर नही है, जितना होना चाहिए।
इन गल्पकारो मे पहला नाम जो हमारे सामने आता है वह है- भारतीय एम० ए० । इनकी अभी तक पॉच-छः कहानियाँ पढ़ने का ही हमें अवसर मिला है और इनमे हमने भावो की वह प्रौढ़ता, निगाह की वह गहराई, मनोविज्ञान की वह बारीकी और भाषा की वह सरलता पाई है कि हम मुग्ध हो गये हैं । 'हस' को पिछलो संख्या मे 'मुनमुन' नाम की उनकी कहानी अद्भुत है और हम उसे 'मास्टरपीस' कह सकते है । वह नवीनता और ताजेपन के पीछे नहीं दौड़ते, कहीं चमकने की सचेत चेष्टा नही करते, ऊँचे उड़ जाने की हवस उन्हे नहीं है । वह उसी दायरे मे रहते है, जिसका उन्होने कलाकार की ऑखो से अनुभव किया है,