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साहित्य का इतिहास-दर्शन


रिचर्ड्स के अनुयायियों में विलियन एम्पसन७ सर्वाधिक उल्लेखनीय हैं। काव्य की भाषा और आशयों के सूक्ष्म और कभी-कभी अति-विचक्षण विश्लेषणों के प्रचलन का सूत्रपात इन्होंने ही अपनी पुस्तक Seven Types of Ambiguities में किया था। एफ० आर० लेविस८ ने रिचर्ड्स की पद्धतियों का समझदारी के साथ व्यवहार किया है और उन्हें अँगरेजी काव्य के इतिहास के उस पुनर्मूल्यांकन के साथ समन्वित कर दिया है, जिसका आरंभ टी० एम० एलियट के निबंधों में हुआ था। लेविस ने रिचर्ड्स की काव्य की व्याख्या की पद्धतियाँ तो अपनाई हैं, किंतु उसके छद्म-वैज्ञानिक साधनों का सहारा नहीं लिया है। इसी तरह, लेविस ने आधुनिक सभ्यता के प्रति एलियट का आलोचनात्मक दृष्टिकोण तो अपना लिया है, किंतु वह उसके आँग्ल-कैथोलिकवाद का पिछलगुआ नहीं है। कला-कृति की अन्विति पर उसका जोर देना, परंपरा-संबंधी उसका विभावन, साहित्यिक इतिहास और आलोचना के कृत्रिम पार्थक्यकी उसकी पूर्ण अस्वीकृति-ये सभी विधेयवाद-विरोधी उस आन्दोलन के प्रमुख लक्षण हैं, जो पाश्चात्य साहित्यिक इतिहास-दर्शन की समकालीन विशेषता है। जाफे टिलोट्सन ने The Poetry of Pope९ में, पोप की कविता के विषय में, रिचर्ड्स के द्वारा उद्भावित कविता की भाषा के सतर्क निरीक्षण की पद्धति कुशलतापूर्वक व्यवहृत की थी। बाद में अपने Essay in Criticism and Research'११ में उसने ऐतिहासिक पुनर्निर्माण के अस्पष्ट सिद्धांत का भी समर्थन किया है और उसकी व्यावहारिक आलोचना असंबद्ध मंतव्यों के धरातल पर ही रह गई है।

इंग्लैंड में साहित्यिक अयध्यन की एक दूसरी धारा भी लक्षित होती है, जो नव-हेगेलीयवाद के पुनरुज्जीवन और उसके द्वंद्वात्मक विकास के विभावन से संबद्ध है। सी० एस्० लेविस अपनी पुस्तक Allegory of Love११ में शैली के इतिहास की विकासात्मक प्रणाली के साथ प्रेम और विवाह के संबंध में मनुष्य की मनोवृत्ति के इतिहास का निपुणतापूर्वक समन्वय कर दिखाते हैं। इसके साथ ही साथ लेविस ने साहित्य के जीवनी प्रधान और मनोवैज्ञानिक अनुबन्ध को आवश्यकता से अधिक महत्व देनेवाले सिद्धांत का भी योग्यता के साथ खंडन किया है। इधर लेविस ने साहित्य की अभिजात रूढ़ियों का समर्थन और आधुनिक साहित्य के प्रायः सभी प्राणवान् तत्त्वों का विरोध किया है।

डब्लू० पी० कर१२ ने अँगरेजी में सबसे पहले इस सिद्धांत का प्रतिपादन किया था कि शैली का विकास एक निश्चित योजना के अनुसार होता है। मध्ययुगीन साहित्य की विशेषज्ञता उनके इस सिद्धांत की आधार-शिला है। इस सिलसिले में बहुत महत्त्वपूर्ण देन है—एफ० डब्लू० बेटसन की। एक ऐसे साहित्य के इतिहास के विषय में, जो मात्र सामाजिक परिवर्तन का दर्पण न हो, इन्होंने ही स्पष्ट जागरूकता दिखाई है। Cambridge B bliography of English Literature में इन्होंने अन्य विद्वानों के लिए पथ-निर्देश किया है। The English Language and Poetry में बेटसन ने उन्नीसवीं शताब्दी के इतिहासकारों की इसलिए आलोचना की है कि उन्होंने साहित्य को मात्र सामाजिक शक्तियों का उत्पादन मान बैठने की भूल की थी; किंतु उनकी यह भी शिकायत है कि आधुनिक विद्वानों में विवेक का एकांत अभाव है, और संतुलन का भाव तो रह ही नहीं गया है। किंतु अँगरेजी काव्य के आदर्श इतिहास के संबंध में स्वयं उनका यह मंतव्य कि वह भाषा-वैज्ञानिक परिवर्तन के घनिष्ठ संबंध के साथ ही लिखा जा सकता है, बहुत युक्तिसंगत नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसके मानी हैं कि साहित्यिक विकास के एकांगी आधार के रूप में किसी एक बाहरी शक्ति को स्वीकृत कर लिया जाय। फिर भी इतना तो निर्विवाद है कि बेटसन ने विधेयवादात्मक पूर्वाग्रहों को अमान्य सिद्ध किया है और वास्तविक साहित्यिक इतिहास की केंद्रगल समस्या निर्दिष्ट कर दी है।