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परम्पराओं और उनकी विकास-सरणियों की विविधता का अभिज्ञान तब हो पाया, जब अतीत का साहित्य पुनरुद्घाटित और आमूल पुनर्मूल्यांकित हुआ। मध्ययुगीन साहित्य के भांडार और लोक-साहित्य का जैसे-जैसे परिचय प्राप्त होता गया, वैसे-वैसे साहित्यिक क्षितिज का विस्तार उस परंपरा-परिधि के बाहर होता गया, जो श्रेण्य प्राचीनता से निर्धारित हुई थी। फलतः निकट अतीत का उपेक्षित और इस कारण अनाविष्कृत साहित्य परिशंसित होने लगा—पहले तो आंशिक रूप में, किन्तु फिर ऐसे अत्यधिक उत्साह के साथ कि श्रेण्य साहित्य की उपेक्षा होने लगी।

सामान्यतः भारतीय भाषाओं में और विशेषतः हिन्दी में हम इसी स्थिति से संप्रति गुजर रहे हैं। निकट अतीत का साहित्य-भाण्डागार तो उद्घाटित हो रहा है और लोक-साहित्य भी संकलित और विवेचित होने लगा है, किन्तु बहुत दूर तक यह संस्कृत के श्रेण्य साहित्य की कीमत पर हो रहा है। कुछ दिनों पहले मराठी के विशाल चरित-कोश की अत्यधिक प्रशंसा मेरे एक मित्र ने की और उसे मेरे सामने लाकर रख दिया तो मैंने उसकी एक बड़ी साधारण परीक्षा की—उसमें मैंने बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशकों तक जीवित महामहोपाध्याय गंगाधर शास्त्री का नाम ढूँढ़ा और मुझे खेदजनक संतोष हुआ कि भारतीय मनीषा के प्रायः अन्तिम प्रतीकों में भी अद्वितीय, पंच परमगुरुओं में एक, तत्रभवान् आचार्य का नाम कोश में नहीं था; संतोष की बात यह इसलिए कि मुझे पूरी आशंका थी कि नाम मिलेगा नहीं और मेरी आशंका ठीक निकली; यहाँ यह भी उल्लेख्य है कि जीवन-पर्यन्त काशी में रहनेवाले आचार्यप्रवर महाराष्ट्री ही थे। इसी प्रकार हिन्दी-साहित्येतिहास में भारतेन्दु-युग के बौद्धिक वायुमण्डल और रुचि-स्तर का निर्धारण काशी की श्रेण्य परंपराओं की पृष्ठभूमि के पुनर्निर्माण के अभाव में संभव ही नहीं है। किन्तु भारतीय साहित्यों के पृथक् व्यक्तित्वों के अभिजान के बाद ही उनके भी साहित्येतिहास का निर्माण संभव हुआ है, यह भी सत्य ही है।

पश्चिम में जिस प्रकार साहित्येतिहास राष्ट्रीय साहित्य तक ही सीमित रहा, वैसे ही भारत में भी विभिन्न भारतीय भाषाओं के साहित्यों के अपने-अपने इतिहास मात्र हैं। अट्ठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ में जब फ्रेंच विद्वानों ने यह उद्घाटन किया कि पड़ोसी इंगलैंड का भी अपना साहित्य है, तो उन्होंने उसे अपनी ही रचि के चश्मे से देखा और अँगरेजी-साहित्य को हीन पाया;[] ला फाँतें की तुलना में प्रायर, बोइलो की तुलना में राचेस्टर और ड्राइडेन और फेनेलों की तुलना में मिल्टन नगण्य सिद्ध हुए। किन्तु धीरे-धीरे पश्चिम के विभिन्न राष्ट्रों ने एक-दूसरे के साहित्यों के प्रति अधिकाधिक जागरूकता का परिचय दिया है, और अब पश्चिम में योरोपीय साहित्य के अंतस्संपृक्त इतिहास के निर्माण का प्रयास होने लगा है।[]

भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों में भी, मुंशी के शब्दों में, 'प्रांतिक अस्मिता' का अभाव नहीं रहा है—हिन्दी के साहित्यकारों में इसके अभाव को उनकी हीनता का प्रमाण तक माना गया है—किंतु अब हम भी 'भारतीय साहित्यों' की बात करने लगे हैं, यद्यपि जो थोड़ा-बहुत काम हुआ है, वह अधिकांश में केन्द्रीय सरकार द्वारा और परिचयात्मक तथा विवरणात्मक


  1. उदाहरणार्थ, Journal litteraire (१७१७) में "Dissertation Sur La ocsie anglaise"; Rivarol की प्रसिद्ध उक्ति, 'what is not clear is not French'.
  2. उदाहरणार्थ, Ford Madox Ford का March of Litrature, George. Allen