पृष्ठ:साहित्य का इतिहास-दर्शन.djvu/६९

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अध्याय ७ साहित्यिक इतिहास के युग हित्य के इतिहास में 'युग - विशेष' की परिकल्पना इस आधार पर ही संगत सिद्ध होती साकि उसमें साहित्यिक आदर्श को कोई परिपाटी सर्वातिशायी हो। इस परिभाषा से ऐसी धारणाओं का निराकरण होता है कि युग का केवल तत्त्वशास्त्रीय अस्तित्व होता है, या कि युग एक शाब्दिक बिल्ला भर है । साहित्यिक प्रक्रिया दिशाहीन आवर्त में निरंतर भ्रमित होती रहती है—यह एक ऐसी मान्यता है जिसके फलस्वरूप हमें एक ओर तो असंबद्ध घटनाओं की अस्तव्यस्तता भर हाथ लगती है, और दूसरी ओर हमें आरोपित बिल्लों से काम लेने के लिए विवश होना पड़ता 1 व्यवहार में साहित्य प्रायः सभी इतिहास यह मानते हैं कि युग निर्धारित किये जा सकते हैं; किन्तु साधारणतः साहित्यिक इतिहास का युग-विभाजन मानवीय कार्य-व्यापार के दूसरे ही क्षेत्रों पर अवलंबित रहता है । उदाहरण के लिए, अँगरेजी साहित्य का संप्रति प्रचलित विभाजन ऐसे युगों की खिचड़ी है, जो साहित्य से सर्वथा भिन्न क्षेत्रों से गृहीत हुए हैं । कुछ सुनिश्चित राजनीतिक घटनाओं का संकेत करते हैं ( रेस्टोरेशन); कुछ शासकों के राजत्व- काल से संबद्ध हैं (एलिजाबेथन, विक्टोरियन); और कुछ कला के इतिहास से लिये गये हैं ( गोथिक, बैरोक) । इस अव्यवस्था के लिए सामान्यतः सफाई यह दी जाती है कि युग-विशेष के लोग अपने समय के बारे में इन्हीं नामों का उपयोग करते थे, जो तर्क सर्वथा निराधार है । अँगरेजी साहित्य के इतिहासकारों ने अधिक व्यवस्थित प्रयत्न किया है, तो युग-श्रृंखला कला के इतिहास से ले ली है— गोथिक, रिनासा, बैरोक, रोकोको । इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय चेतना के मनोवैज्ञानिक विकास के निर्धारण की भी चेष्टाएँ की गई हैं; उदाहरणार्थ L, Evolution psychologique de la lit. en Anglettre में कैजामियाँ ने यह उद्भावना की है कि अँगरेजी- साहित्य विचार और भावना के ध्रुवांतों के बीच दोलित होती रहनेवाली परंपरा है । ऐसे सिद्धांत साहित्य को किसी अन्य सांस्कृतिक क्षेत्र पर अवलंबित बना देते हैं, या राष्ट्रीय चेतना अथवा काल प्रवृत्ति जैसी धारणाओं के विकास से संबद्ध करने का प्रयत्न करते हैं । पहले वर्ग पर आर० वेलेक ने अपने एक निबंध Periods and Movements in Literary History', में सविस्तर प्रकाश डाला है; दूसरे का विशद विवेचन एम्० फोर्स्टर ने अपने एक लेख ‘The Psychological Basis of Literary Periods" में किया है; कैजामियाँ का उल्लेख तो हो ही चुका है । सामान्य रूप से इस समस्या का महत्त्वपूर्ण विश्लेषण आर० एम्० मेयर ने Prinzipien der wiss. Periodenbildung और एच० साइजर्स ने Das Periodenprinzip in der Literature' शीर्षक अपने निबन्धों में किया है ।