अध्याय ६ ५३ किया था । बौद्धिक दृष्टि से यही उन्नीसवीं शताब्दी की मनीषा का सर्वाधिक युक्तियुक्त और अभिजात आंदोलन था। किंतु इसके भी जो अनेक उद्देश्य हैं वे विचारणीय है--पहला है वस्तुनिष्ठता, निर्वैयक्तिकता और निश्चयात्मकता - जैसे सामान्य वैज्ञानिक आदर्शों के अनुकरण का प्रयास । इसके साथ ही कार्य-कारण संबंध और उद्गम के अध्ययन के द्वारा भौतिक विज्ञान की प्रणालियों के अनुकरण की चेष्टा भी थी, जो किसी भी पारस्परिक संबंध के निर्देश को युक्तिसंगत ठहराती थी, बशर्ते कि वह तिथि-कम के आधार पर हो । अधिक संकीर्णता से व्यवहृत होने पर वैज्ञानिक कार्य-कारण-पद्धति आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों के कारण निर्धारित कर किसी साहित्यिक विशेषता की व्याख्या करती थी। कुछ विद्वानों ने साहित्यिक अध्ययन में विज्ञान की परिमाणमूलक प्रणालियों को भी समाविष्ट करने की चेष्टा की थी । वे आँकड़ों और तालिकाओं की सहायता से साहित्यिक अध्ययन को शास्त्रीय बनाना चाहते थे । विद्वानों का एक ऐसा भी दल था जिसने साहित्य के विकास के सूत्रों के निर्धारण के लिए, बड़े पैमाने पर, प्राणिशास्त्रीय सिद्धांतों का व्यवहार किया था । इस प्रकार साहित्य के अध्येता वैज्ञानिक या वैज्ञानिकम्मन्य बन गये थे । चूंकि उन्हें एक अनिर्धारणीय पदार्थ का अध्ययन करना था, इसलिए वे निकृष्ट और अयोग्य वैज्ञानिक सिद्ध हुए। वे अपने विषय और अपनी प्रणालियों के विषय में सशंक बने रहते थे । इस विधेयवाद के विरुद्ध दार्शनिक वातावरण को भी है निकों ने जर्मनी में, और कुछ निर्भीक अनुमानात्मक प्रणालियों के १० यूरोप में बहुपवीन विद्रोह हुआ। इसका कुछ श्रेय परिवर्तित वर्गस ने फांस में और इटली में कोचे ने, तथा अनेक दार्श- ने 9 इंग्लैण्ड में भी, जब अनेकविध आदर्शवादी या कम-से-कम पक्ष में प्राचीन विधेयवादी दर्शनों का परित्याग कर दिया, तब पुरानी प्रकृतवादिता नगण्य हो गई । इसी तरह भौतिक विज्ञानों के क्षेत्र में भी महत्त्व - पूर्ण परिवर्तन हुए : पदार्थ की प्रकृति के नियम, कार्य-कारण-पद्धति आदि के संबंध में पूर्वा- ग्रहों की पुरानी निश्चयात्मकता नष्ट हो चली । ललित कलाओं और साहित्य की कला में भी, वस्तुवाद और प्रकृतवाद के विरुद्ध तथा प्रतीकवाद और अन्य आधुनिक वादों की दिशा में, प्रतिक्रिया हुई। इन प्रवृत्तियों के उत्कर्ष ने धीरे-धीरे और परोक्ष रूप से ही सही, विद्वत्ता के स्वर और दृष्टिकोण को निस्संदेह ही प्रभावित किया । इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह हुई कि दार्शनिकों के वर्ग ने ऐतिहासिक विज्ञानों की प्रणालियों का समर्थन प्रस्तुत किया और भौतिक विज्ञानों की प्रणालियों से उनकी तीक्ष्ण भिन्नता प्रतिपादित की। जर्मनी के एक दार्शनिक विलहेल्म डिल्प" ने १८८२ में ही यह स्थापना की थी कि एक वैज्ञानिक एक घटना की व्याख्या उसकी कारणभूतपूर्व घटनाओं के द्वारा करता है, जब कि इतिहासकार उसका अर्थ संकेतों या प्रतीकों के रूप में समझने की चेष्टा करता है । समझने की यह प्रक्रिया अनिवार्यतः वैयक्तिक और आत्मनिष्ठ भी होती है । प्रायः इसी समय, दर्शन के प्रसिद्ध इतिहासकार विलहेल्म विलबबाद ने इस मान्यता की तीव्र आलोचना की कि ऐतिहासिक विज्ञानों को भौतिक विज्ञानों की प्रणालियों का अनुकरण करना चाहिए। उसके अनुसार भौतिक वैज्ञानिक सामान्य नियमों की स्थापना करने का प्रयास करते हैं, जबकि इतिहासकार ऐसा तथ्य निर्दिष्ट करने की चेष्टा करते हैं, जो अद्वितीय होते हैं ।
पृष्ठ:साहित्य का इतिहास-दर्शन.djvu/६६
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।