४६ साहित्य का इतिहास-दर्शन बल्कि एक ऐसा काल-खंड , जिसमें स्वरूपों की एक पूरी पद्धति की प्रधानता रहती है, जिस कोई भी कला-कृति उसकी संपूर्णता में प्राप्त नहीं कर सकती । युग - विशेष के इतिहास में स्वरूपों की एक पद्धति के, दूसरी पद्धति में परिवर्तनों का प्रलेखन ही वांछनीय है । इस रूप में जहाँ युग-विशेष एक ऐसा काल खंड है, जिसे किसी न किसी प्रकार की अन्विति प्रदान की जाती हैं, वहीं यह भी स्पष्ट है कि यह अन्विति सापेक्ष ही हो सकती है । इसका आशय केवल इतना ही है कि युग-विशेष में स्वरूपों की एक ख़ास योजना अधिक-से-अधिक पूर्णता के साथ उपलब्ध हुई है । यदि किसी युग की अन्विति स्वयं पूर्ण होती, तो विभिन्न युग एक दूसरे से सटे पत्थर के टुकड़ों की तरह होते और उनमें सातत्य या परिणमन का सर्वथा अभाव रहता । फलतः एक प्राग्भावी स्वरूप-योजना का अस्तित्व और एक परवर्ती योजना की पूर्वाशा अनि- वार्य है, क्योंकि कोई युग ऐतिहासिक तभी हो सकता है जब प्रत्येक घटना समस्त पूर्ववर्ती अतीत की परिणति मानी जाय और उसके प्रभाव समस्त भविष्य में प्रलेखित हो सकें । किसी युग के इतिहास लेखन की समस्या सबसे पहले वर्णन की समस्या है : एक रूढ़ि के ह्रास और दूसरी नई रूढ़ि के आविर्भाव को समझना आवश्यक होता है । काल-विशेष में ही क्यों किसी रूढ़ि में परिवर्त्तन हुआ है, यह एक ऐसी ऐतिहासिक समस्या है जो सामान्य रूप से असमाधेय है । एक प्रस्तावित समाधान यह है कि साहित्यिक परिणमन के अंतर्गत क्लांति की ऐसी स्थिति आ जाती है कि एक नवीन रूढ़ि का आविर्भाव आवश्यक हो जाता है । रूसी स्वरूपवादियों ने इस प्रक्रिया को 'स्वचालन " की प्रक्रिया कहा है, अर्थात् काव्य-शिल्प के कौशल, जो अपने समय में प्रभावपूर्ण रहते हैं, आगे चलकर इतने साधारण और पिष्ट-पेषित हो जाते हैं कि नवीन पाठकों पर उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, और वे नये कुछ के लिए अधीर हो उठते हैं जो, ऐसा कहा जा सकता है, पहले जैसा था उसके विपरीत हो । परिणमन की योजना दोला-परिवर्त्तन है, विद्रोहों की ऐसी श्रेणी है जो भाषा, वस्तु और अन्य कौशलों की नई स्थितियों की ओर सदैव अग्रसर होती रहती है। किंतु इस सिद्धांत से यह स्पष्ट नहीं होता कि परिणमन दिशा-विशेष में ही क्यों हुआ: प्रक्रिया की सम्पूर्ण जटिलता की व्याख्या के लिए मात्र दोला- योजनाएँ अपर्याप्त हैं । दिशा परिवर्तन का एक दूसरा समाधान है, जो सारा भार बाह्य हस्तक्षेप और सामाजिक वस्तु-स्थिति के दबाव पर डालता है । इसके अनुसार माहित्यिक रूढ़ि का प्रत्येक परिवर्तन किसी नये सामाजिक वर्ग या ऐसे जन-समूह के उद्भव के कारण होता है जो अपनी कला का स्वयंमेब सृजन करते हैं: यह सत्य हैं भी कि जहाँ वर्ग के विभेद और संबंध बहुत स्पष्ट होते हैं, वहाँ सामाजिक और साहित्यिक परिवर्तन के बीच बहुधा घनिष्ठ अंतस्संबंध स्थापित किया जा सकता है । इसके अतिरिक्त एक और समाधान है जो नई पीढ़ी के उद्भव पर आश्रित है। कोनों के इस सिद्धांत के अनेक अनुयायी पाये जाते हैं। कुछ जर्मन विद्वानों ने इसे विशेष रूप से पल्लवित किया है ।" किंतु इसके विरुद्ध यह कहा जा सकता है कि पीढ़ी को जैवी इकाई मानने से समस्या का समाधान नहीं होता। हम एक शताब्दी में तीन पीढ़ियों की कल्पना करें, उदाहरणार्थ : १८००-१८३३, १८३४-१८६९ और १८००-१६००, तो यह भी सत्य है कि १८०१-१८३४, १८३५-१८७०, १८७१-१६०१ की श्रेणी भी उद्भावित की जा सकती ।
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